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________________ २९६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ भाषाओं में तमिल सबसे प्राचीन भाषा है। उनके कथन का सार है कि तमिल में कवर्ग, घवर्ग, टवर्ग आदि धर्गों में केवल पहले और पांचवें वर्गों का ही उच्चारण होता है अर्थात् बीच के वर्षों की ध्वनियां तमिल में अनुच्चारित रहती हैं। ब्राह्मी में वर्गो के पांचों वर्ण हैं । यदि ब्राह्मी का उद्भव द्रविड़ों से होता, तो उसमें तमिल का अनुसरण अवश्यम्भावी था, जो नहीं मिलता । डा० भोलानाथ तिवारी ने इसकी आलोचना करते हुए जो लिखा है, प्रस्तुत विषय में अत्यन्त उपयोगी है। वे लिखते हैं : "किसी ठोस आधार के अभाव में यह कहना तो सचमुच ही सम्भव नहीं है कि ब्राह्मी के मूल आविष्कर्ता द्रविड़ ही थे, पर पाण्डेयजी के तर्क भी बहुत युक्तिसंगत नहीं दृष्टिगत होते । यह सम्भव है कि द्रविड़ों का मूल स्थान दक्षिण में रहा हो, पर, यह भी बहुत से विद्वान् मानते हैं कि वे उत्तर भारत में भी रहते थे और हड़प्पा और मोहन-जो-दड़ो जैसे विशाल नगर उनकी उच्च संस्कृति के केन्द्र थे । पश्चिमी पाकिस्तान में ब्राहुई भाषा का मिलना ( जो द्रविड़ भाषा हो है ) भी उनके उत्तर भारत में निवास की और संकेत करता है। बाद में सम्भवतः आर्यों ने वहां पहुंचकर उन्हें मार भगाया और उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली।..........."पाण्डेयजी की दूसरी आपत्ति तमिल से ब्राह्मी में कम ध्वनि होने के सम्बन्ध में है। ऐसी स्थिति में क्या यह सम्भव नहीं है कि आर्यों ने तमिल या द्रविड़ों से उनकी लिपि ली हो और अपनी भाषा की आवश्यकता के अनुकूल उनमें परिवद्धन कर लिया हो। किसी लिपि के प्राचीन या मूल रूप का अपूर्ण तथा अवैज्ञानिक होना बहुत सम्भव है और यह भी असम्भव नहीं है कि आवश्यकतानुसार समयसमय पर उसे वैज्ञानिक तथा पूर्ण बनाने का प्रयास किया गया हो। किसी अपूर्ण-लिपि से पूर्ण लिपि के निकलने की बात तत्त्वतः असम्भव न होकर बहुत सम्भव तथा स्वाभाविक है।"1 क्या आर्य जाति के लोग वस्तुतः भारत से बाहर के थे ? क्या द्रविड़ जाति के लोग ही भारत के मूल निवासी थे ? क्या मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से उद्घाटित सहस्रों वर्ष पूर्व की संस्कृति द्रविड़ संस्कृति थी ? क्या वहां से प्राप्त चित्र-लिपि-सूचक सामग्री भारत के मूल निवासियों द्वारा प्रयुक्त किसी लेखन-क्रम की द्योतक है ? इत्यादि अनेक पहलू हैं, जिन पर सूक्ष्म परिशीलन और गवेषणा की अब भी बहुत आवश्यकता है। यदि विद्वज्जनों का अनवरत प्रयास रहा, तो हो सकता है, कुछ ऐसे नूतन तथ्य प्रकाश में आयें, जिनसे अब तक जो तमसावृत हैं, ऐसे प्रश्न समाधान पा सकें, नया आलोक प्रकट हो सके। इसके अतिरिक्त और क्या आशा की जा सकती है। १. भाषा विज्ञान, पृ० ५०२ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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