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________________ भाषा और साहित्य] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास २६५ ये तीन विशेषण और दिये गए हैं, जिनसे अक्षरों का सूक्ष्म प्रयोग ध्वनित होता है। अक्षरों का सूक्ष्म प्रयोग जहां होगा वहां लिपि का अस्तित्व न हो, यह कैसे सम्भव होगा ? पोत्थकम्म और पोत्यकार शब्दों का प्रयोग भी इसी सूत्र में हुआ है । 'पोत्य' शब्द 'पुस्त' का प्राकृत रूप है। पुस्त से ही स्वार्थिक क प्रयय लगाकर पुस्तक शब्द बना है। टोकाकार ने पोत्थकम्म का अर्थ ताड़पत्र आदि पर वर्तिका आदि से लिखना बताया है। इसी प्रकार पुस्तक का प्राकृत रूप है। टोकाकार के अनुसार इसका तात्पर्य पुस्तक के द्वारा जीवन निर्वाह करने वाला है । पुस्तक के द्वारा जीविका चलाने का अर्थ पुस्तक को लेख-बद्ध या लिपि बद्ध करके पारिश्रमिक प्राप्त करना है। नई पुस्तक लिखने का अभिप्राय यहां नहीं है । आज की भाषा में उसे प्रतिलिपिकार या Copyist कहा जा सकता है। भारत में बहुत प्राचीन काल से लेखन-कला विद्यमान थी, यह इन उल्लेखों के साक्ष्य से प्रकट होता है। वैदिक और बौद्ध वाड मय के आधार पर किये गये विवेचन की तरह इन प्रसंगों की भी अपनी ऐतिहासिक महत्ता है। चीनी विश्वकोश ___ चीनी भाषा के सुप्रसिद्ध विश्वकोश फा-बान-शु-लिन (रचना-काल ६६८ ई०) में ब्राह्मीलिपी के सम्बन्ध में उल्लेख है कि इसकी रचना ब्रह्म या ब्रह्मा नामक आचार्य ने की थी। ब्रह्म या ब्रह्मा द्वारा रचित होने के कारण इसका नाम ब्राह्मो पड़ गया। चीनी विश्वकोश का उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। भारतवर्ष को ब्राह्मी का उद्भव-स्थल मानने वाले विद्वानों में एडवर्ड थामस आदि के मन्तव्यानुसार मूलत: ब्राह्मो लिपि का आविष्कार द्राविड़ों द्वारा हुआ । डा० राजबली पाण्डेय ने इस मत का खण्डन किया है। उनका अभिमत है कि द्रविड़ों का मूल स्थान दक्षिण भारत है, न कि उत्तर भारत । दक्षिण भारत में ब्राह्मी-लिपि के अभिलेख प्राप्त नहीं होते, वे उत्तर भारत में ही पाये जाते हैं। यदि द्रविड़ों द्वारा ब्राह्मी-लिपि आविष्कृत होती, तो दक्षिण भारत में ब्राह्मी के अभिलेख प्रभृति सामग्री मिलनी चाहिए, जो नहीं मिलती। डा० पाण्डेय भाषा-विज्ञान को दृष्टि से भी इस प्रश्न पर विचार करते हैं। द्रविड़१. से किं तं आगमओ दव्यावस्सयं ? आगमओ दवावस्सयं-जस्सणं आवस्सएति पदं सिक्खितं ठितं जित मितं परिजितं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं । --अनुयोगद्वार सूत्र, पृ० ७ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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