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१६४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ द्वारा संगान किये गये धम्म और विनय के प्रति अप्रामाणिकता का भाव है । सम्भवतः सारा भिक्षु संघ इसमें सहमत भी न रहा हो। डा. रमेशचन्द्र मजूमदार की दृष्टि में भिक्षु संघ के लिए यह घटना अशुभावह थी। उन्होंने इसे संघ के लिए खतरे की घण्टी बताया है।
डॉ० भरतसिंह उपाध्याय ने इसे विद्वानों का भ्रम मानते हुए कहा है : "पुराण तो एक साधक पुरुष था। एकान्त-साधना का भाव उसमें अवश्य अधिक था, जिसके कारण वह अपनी उस ध्यान-भाधना में, जो उसे शास्ता के प्रत्यक्ष सम्पर्क से मिली थी, किसी प्रकार का विक्षेप नहीं आने देना चाहता था। दूसरों ने बुद्ध-मुख से जो कुछ सुना है, वह सब ठीक रहे, सत्य रहे। किन्तु, पुराण को तो अपना जीवन-यापन उसी से करना है, जो उसकी आवश्यकता को देखते हुए स्वयं भगवान् ने उसे दिया है। इस दृष्टि से न तो पुराण की उक्ति में राजगृह की सभा में संगायन किये हुए बुद्ध-वचनों की अप्रामाणिकता की ओर संकेत है और न वह भिक्षु-संघ के लिए खतरे की घंटी ही थी। इस प्रकार के स्वतन्त्र विचारों के प्रकाशन पर भिक्षु संघ ने कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया, यह उसकी एक विशेषता है। धर्मवादो भिक्षुओं ने धर्म का वैसा ही संगायन किया, जैसा उन्होंने स्वयं भगवान् से सुना था और जो उन्होंने संगायन किया, उसके ही दर्शन पालि सुत्त और विनय पिटकों में मिलते हैं, यद्यपि उनके साथ कुछ और भी मिल गया है।"
डा. उपाध्याय जैसा कि लिखते हैं, यह बिलकुल सही है कि स्वतन्त्र विचारों के प्रकाशन पर भिक्षु-संघ में किसो भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं था। पर, भिक्षु पुराण के "किन्तु, जैसा मैने स्वयं शास्ता के मुख से सुना है, मुख से ग्रहण किया है, मैं तो वैसा ही धारण करूगा;" इन शब्दों पर कुछ गहराई से सोचना होगा। इन शब्दों में यदि संगीति या परिषद् में संगान किये गये बुद्ध-वचनों के प्रति विरोध का भाष नहीं है, तो समर्थन का भाव भी नहीं है। "मैं तो वैसे ही धारण करूगा;" इन शब्दों द्वारा जो विशेष दृढ़ता भिक्षु पुराण प्रकट करता है, उससे उसका उक्त संगीति के प्रति उपेक्षा-भाव या अरुचिभाव भी व्यक्त होता है। भिक्षु सिद्धार्थ एकान्त साधक, ध्यानी जो कुछ भी हो सकता है, पर, जहां बुद्ध के वचन संकलित किये जा रहे हों, वहां आहूत किये जाने पर भी उपस्थित न होना और जैसा स्वयं सुना है, उसके अनुसार चलते रहने का दृढ़ निश्चय व्यक्त करना, जहां उसकी अपनी निष्ठा का परिचायक है, वहां संगीति के प्रति अनादर नहीं तो उपेक्षा का भाष तो है ही।
१. This was a danger signal for the Church.
-Budhistic Studies, Edited by Dr. Law, P. 44
२. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० ६१
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