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________________ भाषा और साहित्य ] पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय [ १६५ संगीति के समसामयिक कुछ ऐसे भिक्षु भी रहे होंगे, जिनकी दृष्टि में इसका बहुत अधिक महत्व नहीं था। वे जो कुछ तथागत से सुन चुके थे, उतने से परितुष्ट थे। बुद्धवचनों के चिर-स्थायित्व और उससे सम्पत्स्यमान लोक-कल्याण की चिन्ता उन्हें नहीं थी। और नहीं तो कम-से-कम इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि महान् करुणाशील बुद्ध के महाकरुणा के सिद्धान्त का परिपोषण तो इससे नहीं होता। साथ-ही-साथ बौद्ध संघ के लिए इतना महत्वपूर्ण कार्य हो रहा था, उसके प्रति सर्वथा उदासीनता का भाव क्या यह व्यक्त नहीं करता कि जो बहुत प्रसिद्ध भिक्षु थे, उन्होंने ही इस कार्य को प्रारम्भ कर दिया हो। समग्न भिक्षु संघ की सम्मत्ति सम्भवतः नहीं प्राप्त की गयी हो। जो भी हो, संगीति की प्रामाणिकता पर इससे कोई आंच नहीं आती। दुसरी संगीति बुद्ध-वचन प्रथम संगीति में संगृहीत कर लिये गये, यद्यपि उनका रूप मौखिक ही था। तदनुसार भिक्षु संघ चलता रहा। लगभग एक शताब्दी के पश्चात् पुन: एक प्रसंग बना, जिससे यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि बुद्ध-वचन का पुन: संगान किया जाए। चुल्ल वग्ग में इस सम्बन्ध में स्पष्टतया सौ वर्ष का उल्लेख है। नत्सांग की गणना के अनुसार यह समय एक सौ दश वर्ष का था। द्वितीय संगोति का आयोजन वैशाली के बालुकाराम मामक स्थान में किया गया। इसमें सात सौ भिक्षुओं ने भाग लिया। इसलिए इसे सप्तशतिका भी कहा जाता है। परिषद् के बुलाये जाने का कारण विनय-आचार से सम्बद्ध कुछ विषयों को स्पष्ट करना था, जो विवादग्रस्त हो चुके थे। वैशाली के भिक्षुओं पर आरोप था कि वे दश आचारों में बौद्ध विनय के विरुद्ध प्रवृत्ति करते हैं । वे दश आचार थे : १. सिंगिलोण-कप्प ( शृंगि-लवण-कल्प )-सींग में लवण भरकर ले जाना। २. द्वगुल-कप्प ( द्वयंगुल-कल्प )-दो अंगुल छाया बिता कर मध्याह्न के बाद भी . भोजन करा लेना। ३. गामन्तर-कप्प ( नामान्तर-कल्प )-ग्रामान्तय से अर्थात् किसी एक गांव से दूसरे गांव में जाकर एक ही दिन में पुनः भोजन कर लेना । ४. आवास-कप्प ( आवास-कल्प )-एक ही सीमा में स्थित बहुत से आवासों में उपोसप करना। ५. अनुमति-कप्प ( अनुमति-कल्प )-कर्म करने के बाद अनुमति लेना । १. वस्ससतपरिनिन्छुते भगवति । For Private & Personal Use Only www.jainelibri ____Jain Education International 2010_05 www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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