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________________ १९६] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ६. अचिण्ण-कप्प ( आचीर्ण-कल्प )-अपने आचार्य या उपाध्याय द्वारा आचरित किसी कार्य को अपने लिए कल्प्य-विहित बना लेना । ७. अमथित-कप्प ( अमथित-कल्प )-भोजनोत्तर ऐसे दूध का पान करना, जो दही जमने की प्रक्रिया में था, पर, जो अभी दही नहीं बना था और शुद्ध रूप में दूध भी नहीं रहा था। जलोगी-पान-ताड़ी पीना। ६. अवसक-निसीवन ( अवशक-निषीदन )-ऐसे आसन का प्रयोग करना, जिसके किनारे पर मगजी नहीं लगी हुई हो।। १०. जातरूप-रजत-स्वर्ण और रजत ग्रहण करना। वैशाली के भिक्षु इन दश के आचरण में दोष नहीं मानते थे। इसे लेकर भिक्षुओं में दो दल हो गये-पाचीनक ( प्राचीनक ) और पावेय्यक (प्रातीचीनक ) अर्थात् पूर्व के भिक्षु तथा पश्चिम के भिक्षु । पूर्व के भिक्षु वैशाली के भिक्षुओं के पक्ष में थे तथा पश्चिम के भिक्षु वैशाली के भिक्षुओं के उक्त आचरणों को आलोच्य तथा सदोष मानते थे। वैशाली की परिषद् इन्हीं विवादग्रस्त विषयों का निर्णय करने के लिए हुई। यह परिषद् आठ महीने तक चली। निष्कर्ष यह रहा कि इस परिषद् ने वैशाली के भिक्षुषों के उक्त आचरण को विनय के प्रतिकूल घोषित किया। वर्तमान में विनयपिटक जिस रूप में प्राप्त है, उससे उक्त दश आचार, जिनके सम्बन्ध में निर्णय करने के लिए वैशाली में दूसरी संगीति का आयोजन हुआ था, बुद्ध के मन्तव्यों के विपरीत बतलाये गये हैं। इससे क्या यह सम्भावना नहीं बनती कि विनय पिटक का जो संस्करण आज प्राप्त है, वह वैशाली की संगीति के पश्चात् विनय का जो रूप निश्चित हुआ, के आधार पर निर्मित हुआ। उससे पूर्व, हो सकता है, विनयपिटक का रूप कुछ भिन्न रहा हो। डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार प्रभृति विद्वानों ने इस सन्दर्भ में इस प्रकार का निष्कर्ष निकाला है कि वर्तमान विनय-पिटक वैशाली की संगीति के पूर्व का नहीं हो सकता ।। पेशाली की संगीति से पूर्व यदि त्रिपिटक का कोई दूसरा स्वरूप होता और उसमें वे दश आचार, जो उस संगीति में बुद्ध-वचन के प्रतिकूल ठहराये गये, अनिषिद्ध होते, तो फिर विवाद ही कैसे उठता ? वैशाली के भिक्षुओं के पास तब एक आधार होता, जिससे उनका माचार सहज ही समर्थित माना जाता । पश्चिमी प्रदेश के भिक्षुओं को उनके आचार को दुषित बताने का साहस ही कैसे होता और आठ महीनों के लम्बे विचार-विमर्श के बाद ऐसा १. Budhist Studies, Edited by Dr. Law, P. 62 Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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