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आर्ष (अर्द्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय
भाषा और साहित्य ] [ ३८१ नहीं । भद्रबाहु के बाद स्थूलभद्र की ही सब दृष्टियों से वरीयता अभिमत है । यह भी हो सकता है, आचार्य भद्रबाहु जब नेपाल जाने लगे हों, उन्होंने संघ का अधिनायकत्व स्थूलभद्र को सौंप दिया हो । अधिकतम यही सम्भावना है, प्रथम आगम-वाचना स्थूलभद्र के नेतृत्व में हुई हो ।
आचार्य भद्रबाहु : दिगम्बर- मान्यता
दिगम्बर-परम्परा में सामान्यतः ऐसा विश्वास किया जाता है कि मगध में पड़े द्वादश वर्षीय दुष्काल के समय आचार्य भद्रबाहु जैन संघ सहित दक्षिण चले गये । सम्राट् चन्द्रगुप्त भी उनके साथ गया, एक मुनि के रूप में । श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) के चन्द्रागिरि नामक पर्वत पर उनका स्वर्गवास हुआ ।
श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) स्थित पार्श्वनाथ वसति के एक शिलालेख में उल्लेख है कि आचार्य भद्रबाहु के वचन से जैन संघ उत्तरापथ (उत्तर भारत ) से दक्षिणापथ ( दक्षिण भारत ) गया। पर, उस शिलालेख में ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि आचार्य भद्रबाहु भी उनके साथ दक्षिण गये थे । यह शिलालेख शक संवत् ५२२ के आस-पास का लिखा हुआ है ।
वृहत्कथा कोष
वृहत्कथाकोष ग्रन्थ में भी इस सम्बन्ध में वर्णन है । इसके लेखक आचार्य हरिषेण है और रचना समय शक संवत् ८५३ है । उसमें जो विवरण है, उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है - आचार्य भद्रबाहु किसी समय विहार करते हुए उज्जयिनी पहुंचे। वहां शिप्रा नदी के किनारे एक उद्यान में ठहरे । वे भिक्षार्थ नगर में गये । एक घर में देखा, एक बच्चा झूले में झूल रहा है। बच्चे ने चिल्लाकर कहा- निकल जाओ । इस निमित्त से उन्हें प्रतीत हुआ कि बारह वर्षों का एक भीषण दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। उन्होंने संघ को बुलाया और सारे वृत्तान्त से अवगत कराया। उन्होंने कहा, अच्छा यही है, लोग दक्षिण देश चले जाए । मुझे स्वयं यहीं ठहरना होगा; क्योंकि मेरी आयु अब क्षीण हो चुकी है ।" विशाखाचार्य का दक्षिण-गमन
इसी कथाकोष में एक महत्वपूर्ण उल्लेख यह है कि चन्द्रगुप्त ने आचार्य भद्रबाहु से श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। वे विशाखाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । गुरु की आज्ञा से वे संघसहित दक्षिण में पन्नाट देश गये । वहां रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य को अपने-अपने संघों सहित सिन्धु आदि देशों में भेजे जाने की चर्चा है । वृहत्कथाकोष में यह भी उल्लेख
१. अहमत्रैव तिष्ठामि क्षीणमायुर्ममाधुना ।
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