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________________ भाषा और साहित्य 1 आर्य (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङमय [ ५०५ सूरि नामक प्रमुख टीकाकार हुए। शान्ति सूरि ने उत्तराध्ययन पर पाइय या शिष्याहिता संज्ञक टीका की रचना की, वह उत्तराध्ययन- वृहद-वृत्ति के नाम से भी प्रसिद्ध है । नेमि - चन्द्रसूरि ने इसी टीका को मुख्य आधार बना कर एक टीका की रचना की, जिसे उन्होंने सुख-बोधा संज्ञा दी । " ज्ञाचार्य शान्ति सूरि ने जहां प्राकृत-कथायों की उदधृत किया है, यहां 'ऐसा वृद्धसम्प्रदाय है' 'यौं वृद्धावाद हैं', 'अभ्य इस प्रकार कहते हैं' इत्यादि महत्वपूर्ण सूचनाएं की हैं, जो अनुसन्धिरसुत्रों के लिए बड़ी उपयोगी हैं । इनसे अनुमेय है कि प्राचीन काल से इन कथाओं की परम्परा चली आ रही थी । कथा - साहित्य के अनुशीलन की दृष्टि से इन कथाओं का निःसन्देह बड़ा महत्व है । पाइय तथा सुखबोधा संज्ञक टीकाओं में कुछ कथाएं तो इतनी विस्तृत हो गयी हैं कि उनकी पृथक् स्वतन्त्र पुस्तक हो सकती है । ब्रह्मदत्त की कथाएं इसी प्रकार की हैं। ear arata प्रभृति उत्तरवर्ती टीकाकार बारहवीं - तेरहवीं ई० शती में अनेक टीकाकार हुए, जिन्होंने टीकानों के रूप में महत्वपूर्ण व्याख्या - साहित्य का सर्जन किया। प्राचार्य अभयदेव सूरि ने स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्न व्याकरण, तथा विपाक श्रुत; इन नौ अंग-ग्रन्थों पर विद्वत्तापूर्ण टीकाओं की रचना की, जिनका जैन साहित्य में बड़ा समादत स्थान है । नौ अंगों पर टीकाएं रचने के कारण ये नवांगी टीकाकार के नाम से विश्रुत हैं । इनका समय बारहवीं ई० शताब्दी है । बारहवीं - तेरहवीं शती के टीकाकारों में द्रोणाचार्य, मलधारि हेमचन्द्र, मलयगिरि एवं क्षेमकीर्ति आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । सोलहवीं शती के अन्तिम भाग में हुए शान्तिer भी विश्रुत टीकाकार थे । - विशेषता : महत्व टीकाओं ने श्रागम-गत निगूढ़ तत्वों की अभिव्यक्ति और विश्लेषरण का तो महत्वपूर्ण कार्य किया ही, एक बहुत बड़ी साहित्यिक निधि भी प्रस्तुत की, जिसका असाधारण महत्व है । विद्वान् टीकाकारों ने मानव जीवन के विभिन्न अंगों और पहलुओं का जो विवेचनविश्लेषण किया, वह मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यिक, सामाजिक श्रादि अनेक पहलुओं का मार्मिक संस्पर्श लिये हुए है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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