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________________ ५० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ का उत्तरवर्ती रूप 'वैखरी'' है, जो मानव के व्यवहार-जगत् का अंग है । 'खरी' के प्रस्फुटित होने का अर्थ है-शब्द द्वारा एक आकार की प्राप्ति । बहुत जटिल से प्रतीत होने वाले उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सारांश यह है कि शब्दमात्र के प्रस्फुटित या प्रकट होने में मुख्य क्रियाशील तत्त्व पधन या श्वास है। मूलाधार में उत्पन्न सूक्ष्मतम से प्रारम्भ होकर नाभिदेश में उद्भूत सूक्ष्मतर में से गुजरते हुए हृदय-देश में प्रकटित-व्यक्त-अव्यक्त सूक्ष्म स्वरूप को प्राप्त शब्द के श्वास-संश्लिष्ट होने का ही सम्भवतः यह प्रभाव होना चाहिए कि श्वास विभिन्न स्थिति, रूप, क्रम एवं परिमाण में स्वर-यन्त्र के पर्दो का संस्पर्श करता हुआ उनके विविधतया तनने, फैलने, सिकुड़ने, मिलने, भद्धमिलित, अल्पमिलित, ईषन्मिलित आदि अवस्थाए प्राप्त करने, फलतः तदनुरूप स्वर, व्यंजन शब्द-गठक अक्षर परिस्फुटित करने का हेतु बनता है। पाणी के प्रादुर्भाव का जो क्रम प्रतिपादित हुआ है, वास्तव में बड़ा महत्वपूर्ण है और वैज्ञानिक सरणि लिये हुए है। वागुत्पत्ति जैसे विषय पर भी भारतीय विद्वानों ने कितनी गहरी डुबकियां लीं, इसका यह परिचायक है। जैन दर्शन की दृष्टि से ____जैन दर्शन तीन प्रकार की प्रवृत्तियां-योग स्वीकार करता है-मानसिक, पाचिक तथा कायिका । जब मनुष्य मनोयोग या मनःप्रवृत्ति में संलग्न होता है, तो उस ( मनोयोग ) के द्वारा सूक्ष्म कर्म-पुद्गल ( कम-परमाणु ) आकृष्ट होते हैं । ये कम-परमाणु मूत होते हैं, पर, उनका अत्यन्त सूक्ष्म आकार होता है। मन की प्रवृत्ति या चिन्तन जिस प्रकार का होगा, उसी के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्माणु आकृष्ट होंगे। मनोयोग या मानसिक चिन्तन किसी भी उद्भूयमान कर्म की प्रथम व सूक्ष्म संरचना है। चिन्तन के अनन्तर वाचिक अभिव्यक्ति का क्रम आता है, जिसके लिए शब्दात्मक भाषा की आवश्यकता होती है। मनोयोग जब वाक्-योग में परिणत होना चाहता है, तो वे मनःप्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट कर्म-परमाणु ध्वनि-निष्पत्ति-क्रम पर विशेष प्रभाव डालते हैं। वह प्रभाव आकृष्ट या संचित कर्म-परमाणुओं की भिन्न-भिन्न दशाओं के अनुसार विविध प्रकार का होता है, जैसा होना स्वाभाविक है। फलतः विभिन्न मनोभावों के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियां या शब्द वाक्-योग के रूप में निकल पड़ते हैं। १. विशेषेण रवं राति = रा+ क + अ + डीप अर्थात् जो विशेष रूप से आकाश को रख-युक्त करे-निनादित करे। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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