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भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह
[ ४६ यन्त्र-मुख या काकल ( Glottis) कहते है। जब हम सांस लेते हैं या बोलते हैं, तब वायु इसी से भीतर-बाहर आती-जाती है । मानव इन स्वर-तन्त्रियों के सहारे अनेक प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करता है । तात्पर्य यह है, श्वास या पवन के संस्पर्श, या संघर्ष से स्वर-तन्त्रियों या स्वर-यन्त्र के इन लचीले दोनों पर्यों में कई प्रकार की स्थितियां बनती हैं। कभी ये पर्दे एक-दूसरे के समीप आते हैं, कभी दूर होते हैं। सामीप्य और दूरी में भो तरतमता रहती है—कब एक पर्दा कितना तना, कितना सिकुड़ा, दूसरा कितना फैला, कितना सटा इत्यादि। इस प्रकार फैलाव, तनाव, कम्पन आदि की विविधता ध्वनियों के अनेक रूपों में प्रस्फुटित होती है। जैसे, वीणा के भिन्न-भिन्न तार ज्यों-ज्यों अंगुलि द्वारा संस्पृष्ट और आहत होते जाते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वर उत्पन्न करते जाते हैं। वही बात स्वर-यन्त्र के साथ है, जो एक व्यवस्थित और नियमित क्रम लिए हुए है।
स्वर-यन्त्र से निःसृत ध्वनियां मुख-विवर में आकर अपने-अपने स्वरूप के अनुकूल मुखगत उच्चारण अवयव-कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त, औष्ठ, नासिका आदि को सःस्पृष्ट करती हुई मुख से बाहर निःसृत होती हैं, वायु से टकराती हैं। जैसा-जैसा उनका सूक्ष्म स्वरूप होता है, वे वायु में वैसे प्रकम्पन या तरगें पैदा करती हैं। वे तरंगें ध्वनि का संवहन करती हुई उन्हें कर्णगोचर बनाती हैं।
शब्द के सूक्ष्मतम अभौतिक कलेवर की सृष्टि
ध्वनि की अभिव्यक्ति का व्यापार मूलाधार से प्रारम्भ होकर मुख-विवर से निःसूत होने तक किन-किन परिणतियों में से गुजरता है, यह बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और घेखरी के विवेचन के अन्तर्गत जो बतलाया गया है, उसका निष्कर्ष यह है कि जब अर्थ-विशेष का संस्फुरण या भावोद्वेलन व्यक्त होने के लिए शब्द की मांग करता है, अर्थ की बोधकता के अनुरूप उस शब्द का सूक्ष्मतम अभौतिक कलेवर तभी बन जाता हैं, जिसकी पारिभाषिक संज्ञा 'परा' वाक है। 'परा' वाक् अर्थात् वह बहुत दूरवर्ती वाणी या शब्द, जो हमारी पकड़ के बाहर है। तदनन्तर नाभि-देश के संयोग या संस्पर्श द्वारा जो शब्द उत्पन्न होता है, वह भी पहले से कुछ कम सही, सूक्ष्मावस्था में ही रहता है । इस पधन-संश्लिष्ट सूक्ष्म वाक् का और विकास होता है । सूक्ष्म-अमूर्त शब्द मूर्तत्व अधिगत करने की ओर बढ़ता है । · सूक्ष्म शब्द का थोड़ा-सा स्थान स्थूल शब्द ले लेता है । पर, जैसा कि कहा गया है, वह व्यक्त, स्फुट या इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होता । यह सूक्ष्म और स्थूल वाणी का मध्यवर्ती रूप है, जहां से सूक्ष्मता के घटने और स्थूलता के बढ़ने का अभियान आरम्भ होता है। इसीलिए सम्भवतः इसे 'मध्यमा' कहा गया हो। 'मध्यमा'
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