________________
४८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ पाणिनीय शिक्षा में भी शब्द-स्फुटन का मूल इसी तरह व्याख्यात किया गया है।
शब्द-निष्पत्ति का यह एक शास्त्रीय क्रम है। भौतिक विज्ञान के साधनों द्वारा इसका परीक्षण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वैखरी वाक से पूर्व तक का क्रम सर्वथा सूक्ष्म या अभौतिक है। फिर भी यह एक ऐसी कार्य-कारण परम्परा को लिए हुये है, जो अपने आप में कम वैज्ञानिक नहीं है । भाषा विज्ञान में यद्यपि अद्यावधि यह क्रम सम्पूर्णतः स्वीकृत नहीं है, तथापि यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है, जो दार्शनिक दृष्टि से शब्द-निष्पत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। तात्पर्य यह है कि जब मानध (आत्मा) अन्तः-स्थित विचार या भाव, जिसे उक्त उद्धरण में ज्ञात अर्थ कहा गया है, की विवक्षा करता है, उसे वाणी द्वारा प्रकट करना चाहता है, तो वह अपने अन्तःकरण ( विचार और भावना के स्थान ) को प्रेरित करता है और यह चिकीर्षा तत्क्षण उससे जुड़ जाती है। उसके बाद अनल और अनिल के प्रेरित एवं चलित होने की बात आती है। यह एक सूक्ष्म आवयविक प्रक्रिया है। यह सर्व विदित है और सर्वस्वीकृत भी कि ध्वनि-निष्पादन में वायु का महत्वपूर्ण स्थान है। पर, वायु को ऊर्ध्वगामी करने के लिए जोर लगाने की या धकेलने की आवश्यकता होती है। मूलाधार स्थित अग्नि ( तेज, ओज ) द्वारा वायु के नाभि देश की ओर चालन का यही अभिप्राय है। नाभि-देश से पवन या श्वास फिर ऊध्वंगामी होता है । वस्तुतः श्रवण-गम्य वाक् का मूल श्वास के उत्थान में है । वह ( श्वास ) ऊवंगमन करता हुआ ध्वनि-यन्त्र या स्वर-यन्त्र (Vocal Chord ) से टकराता है । स्वर-यन्त्र का आवयविक स्वरूप मोर प्रक्रिया
गले के भीतर भोजन और जल की नली के समकक्ष श्वास की नली का वह भाग, जो अभिकाकल-स्वरयन्त्रावरण ( Epiglo tis ) से कुछ नीचे है, ध्वनि-यन्त्र या स्वर-यन्त्र कहा जाता है। गले के बाहर की ओर कण्ठमणि या घांटी के रूप में जो उभरा हुआ, दुबले-पतले मनुष्यों के कुछ बाहर निकला हुआ कठोर भाग है, वही भीतर स्वर-यन्त्र का स्थान है। श्वास-नलिका का यह ( स्वर-यन्त्र-गत ) भाग कुछ मोटा होता है । प्रकृति का कुछ ऐसा ही प्रभाव है, जहां जो चाहिए, उसे वह सम्पादित कर देती है। स्वरयन्त्र या ध्बनि-यन्त्र में सूक्ष्म झिल्ली के बने दो लचकदार पर्दे होते हैं। उन्हें स्वरतन्त्री या स्वर-रज्जू कहा जाता है। स्वर-तन्त्रियों के मध्यवर्ती खुले भाग को स्वर
कदाचिवस्माकमपि समधिगम्या। ततो मुखपर्यन्तमाक्रामता तेन कण्ठदेशमासाद्यमूर्धानमाहत्य तत्प्रतिघातेन परावृत्य च मुख-विवरे कण्ठादिकेष्वष्टसु स्थानेषु स्वाभिघातेतोत्पादितः शब्द वेरीति कथ्यते।
-साहित्य दर्पण, पृ० २९ १. आत्मा बुद्ध्या समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया ।
मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ॥
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org