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________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [ ४७ संरचना की आदिम दशा का परिचय है । परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी ___ वागिन्द्रिय से बाक्-नि:सृति के क्रम पर कुछ संकेत पूर्व पृष्ठों में किया गया था। यहां उसका कुछ विस्तार से विश्लेषण किया जा रहा है। वैदिक वाङमय में परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी; इन नामों से चार प्रकार की वाणी वर्णित हुई है। महाभाष्यकार पतंजली ने महाभाष्य के प्रारम्भ में ही ऋग्वेद की एक पंक्ति 1 उद्धत करते हुए इस ओर इगित किया है। साहित्य-दर्पण के टीकाकार प्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी ने वर्ण की व्याख्या के प्रसंग में परा, पश्यन्ती आदि वाक् रूपों का संक्षेप में सुन्दर विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है : "ज्ञान में आये हुए अर्थ की विवक्षा से आत्मा तद्बोधक शब्द के निष्पादन के लिए अंतःकरण को प्रेरित करता है। अन्तःकरण मूलाधार स्थित अग्निअम्मा-तेज को संचालित करता है। अग्नि के द्वारा तत्स्थलवती वायु स्पन्दित होता है। इस प्रकार स्पन्दित वायु द्वारा वहां सूक्ष्म रूप में जो शब्द उद्भूत होता है, वह 'परा' वाक् कहा जाता है। तदनन्तर नाभि प्रदेश तक संचालित वायु के द्वारा उस देश के संयोग से जो शब्द उत्पन्न होता है, उसे 'पश्यन्ती' वाक् कहा जाता है। ये दोनों । वाक् ) सूक्ष्म होती हैं ; अतः ये परमात्मा या योगी द्वारा ज्ञ य हैं। साधारणजन उन्हें कर्ण-गोचर नहीं कर सकते। वह वायु हृदय-देश तक परिसृत होती है और हृदय के संयोग से जो शब्द निष्पन्न होता है, वह 'मध्यमा' वाक् कहलाता है। कभीकभी कान बन्द कर सूक्ष्मतया ध्वनि के रूप में जनसाधारण भी उसे अधिगत कर सकते हैं। उसके पश्चात् वह वायु मुख तक पहुंचती है, कण्ठासन्न होती है, मूर्द्धा को आहत करती है, उसके प्रतिघात से वापिस लोटती है तथा मुख-विवर में होती हुई कण्ठ भादि आठ उच्चारण स्थानों में किसी एक का अभिघात करती है, किसी एक से टकराती है। तब जो शब्द उत्पन्न होता है, वह 'खरी' वाक् कहा जाता है।" क १. गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयान्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति । –ऋग्वेद, १३१६४।४५ २. चेतनेन ज्ञातार्थविवक्षया तद्बोधक शब्द निष्पादनाय प्रेरितमन्तःकरणं मूलाधारस्थित मनलं चालयति, तच्चालितोऽनलस्तत्स्थलवर्तिवायुचालनाय प्रभवति, तच्चालितेन वायुना तत्रैव सूक्ष्मरूपेणोत्पादितः शब्दः परा वागित्यमिधीयते। ततो नाभिदेशपर्यन्तचलितेन तेन तद्देशसंयोगादुत्पावितः शब्दः पश्यन्तीति व्यवष्टियते। एतद्द्वयस्य सूक्ष्मसूक्ष्मतरतयेश्वरयोगिमात्राम्यता, नास्मदोयत्र तिगोचरता। तततेनैस्व हृदयदेशं परिसरिता हृदयसंयोगेन निष्पादितः शब्दो मध्यमेत्युच्चते। सा च स्वकर्णपिधानेन ध्वन्यात्मकतया सूक्ष्मरूपेण ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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