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भाषा और साहित्य ]
विश्व भाषा-प्रवाह ( उनकी बोली ) में कोई भिन्नता नहीं ला पाता, उसी प्रकार यदि ये आकस्मिक भावद्योतक ध्वनियां ( Interjections ) स्वाभाविक होतीं, तो संसार भर के मानव एक ही रूप में उनका प्रयोग करते, वह आलोच्य है। भाषा के सन्दर्भ में पशु और मानव को सर्वथा एक कोटि में नहीं लिया जा सकता। पशुओं की बोली का एक ससीम रूप है। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व भी सम्भवतः वही था, जो आज है। पर, मानव एक विकासशील प्राणी है । विश्व-मानव भाषाओं की दृष्टि से कितना विकास कर चुका है, वह उसके द्वारा प्रयुक्त सहस्रों भाषाओं से स्पष्ट है। यह विकास का विस्तार है। उसका बीज मानव में पहले भो विद्यमान था ।
विशेष रूप में तो शरीर-शास्त्र के मर्मज्ञ बतला सकते हैं, पर, स्थूल दृष्टि से अनुमान है कि मानव की वागिन्द्रिय तथा कुत्ते आदि पशुओं की वागिन्द्रिय में सम्भवतः स्वर-यन्त्रसम्वन्धी तन्त्रियों या स्नायुओं में पूर्ण सादृश्य नहीं होता। तोता, कोयल आदि कुछ पक्षी सिखाये जाने पर मनुष्य की बोली का अनुकरण करते हैं। इससे लगता है, उनका मानव के साथ वागिन्द्रिय-सम्वन्धी कुछ-कुछ साम्य है। पर, उनके अतिरिक्त अन्य पक्षी या पशु में ऐसा नहीं है।
भिन्न देशों में रहने वाले लोगों की आकस्मिक भाव द्योतक ध्वनियां एक जैसी होतीं, वह कैंसे सम्भब हो सकता है ? जल-वायु आदि के कारण मनुष्य के स्वर-यन्त्र के स्पन्दन, प्रवर्तन, संकोच, विस्तार की तरतमता के अतिरिक्त यह भी सोचने योग्य है कि किस व्यक्ति ने किस परिप्रेक्ष्य, किस स्थिति, किस वातावरण और किस कोटि की भावनाओं से अभिद्रुत होकर सहसा किसी ध्वनि का उच्चारण किया। सहस्रों मीलों की दूरी पर रहने वाले मनुष्यों में नृवंशगत ऐक्य के उपरान्त भी न जाने अन्य कितनी भिन्नताए हैं। क्या ग्वनि-निःसृति पर उनका स्वल्प भी प्रभाव नहीं होता ?
। प्रस्तुत चर्चा के आधार पर किसी एक देश में एक भाव के लिए कोई एक हो शब्द निकला हो, यह निश्चित नहीं है। भिन्न-भिन्न समय भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा जब जिस रूप में सम्भव हो पाया, एक भाव के लिए विविध ध्वनियां निःसृत हुई हों। वे आज सब कहां रह पाई हैं ? जो रह पाई हैं, उनमें से बहुत थोड़ी-सी हैं । सारांश यह है, चाहे संख्या में कम ही सही, जो आकस्मिक भाव-द्योतक ध्वनियां भाषा में हैं, उनका भाषा की निर्मिति में एक स्थान है।
डा० भोलानाथ तिवारी ने इस सिद्धान्त के विषय में कुछ और सम्भावनाए प्रकट को हैं। उनका अभिप्राय यह है कि ये Interjectional ध्वनियां यद्यपि सीमित थीं, टूटेफूटे रूप में इनसे भाव व्यक्त किये जाते रहे होंगे, पर, इनके सतत प्रयोग से मानव को अन्य
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