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________________ ५६८ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड । २ विताम्बर–दोनों द्वारा अस्वीकृत ही नहीं तिरस्कृत था। अतः हो सकता है, दोनों ही सम्प्रदाय तिरस्कार के रूप में अपना रोष व्यक्त करने की दृष्टि से उसे ऐसे नाम से सम्बोधित करने लगे हों। आगे जाकर वह नाम इतना प्रचलित हो गया हो कि नाम-कर्ताओं की तिरस्क्रिया का उसमें सर्वथा लय हो गया हो और वही नाम उनके वास्तविक नाम के रूप में छल पड़ा हो। उन्होंने उसे यथावस् स्वीकार कर लिया हो । भाषा-शास्त्र के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनके साथ इसी कोटि के वृत्त घटित होते रहे हैं। বাধনী অথ : অকাথা পাব दिगम्बर-श्वेताम्बर के रूप में जैन संघ में जो विभाजन हुआ है, उसकी जैन धर्म के अनुयायियों पर अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएं हुई होंगी। 'देहदुखं महाफलम्' के प्रादर्श में विश्वास रखने वाले लोगों का झुकाव निर्वस्त्र-परम्परा के मुनियों की और अपेक्षाकृत अधिक हुआ हो । आध्यात्मिक आदर्शों के साथ-साथ जो सामाजिक सम्पर्क तथा समाज में श्रमणों के अपेक्षाकृत अधिक प्रवेश की आवश्यकता समझते थे। उनको सवस्त्र-परम्परा ठक लगी हो । कुछ ऐसे भी लोग रहे हों, जो दोनों धाराप्नों के सिद्धान्तों को अनुचित समझते हों। इस प्रकार के अनेकविध विचार चलते रहे हों। लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप उन-उन धार्मिक क्रिया-कलापों में भाग लेते रहे हों। इस बीच एक शताब्दी के भीतर ही यापनीय संघ के रूप में एक अभिनव धार्मिक अभियान लोगों के समक्ष आया हो । जो पिछली दोनों परम्पराओं के कट्टरपन से परितुष्ट नहीं थे, उन्होंने, उनसे सम्बद्ध लोगों ने, अन्य प्रभावित हुए व्यक्तियों ने यापनीय मत को स्वीकार कर लिया हो। एक विशेष प्रकार की विचारधारा लिए कोई भी नया सम्प्रदाय खड़ा होता है, तब प्रारम्भ में उसके उपदेशकों तथा अनुयायियों में अपने विचारों को लोकव्यापी बनाने का एक विशेष प्रकार का उत्साह दिखाई देता है। यापनीय संघ के संदर्भ में भी संभावना की जा सकती है, ऐसा ही हुआ हो। वैसा होने में एक सुविधा भी थी, क्योंकि वह सम्प्रदाय प्रांशिकतया दिगम्बर तथा श्वेताम्बर-दोनों परम्पराओं के आदर्शों को लिए हुए था, इसलिए दोनों के अनुयायियों तक सरलता से उसकी पहुंच थी। फलतः यापनीय संघ उत्तरोत्तर फैलता गया । उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में यापनीय मत अधिक फैला । इतना फैला कि कुछ शताब्दियों तक तो वह जैन परम्परा के मुख्य प्रतीक के रूप में वहां समाइत रहा। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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