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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ में कहा जा सकता है । यदि यथार्थ संगति जोड़ें, तो उपांग अंगों के पूरक होने चाहिए,जो नहीं हैं। फिर इस नाम को प्रतिष्ठापना कैसे हुई, कोई व्यक्त समाधान दृष्टिगत नहीं होता। वेदों के अंग
भारत के प्राचीन वाङमय में वेदों का महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों के अर्थ को समझने के लिए, वहां वेदांगों की कल्पना की गयी, जो शिक्षा ( वैदिक संहिताओं के शुद्ध उच्चारण तथा स्वर-संचार के नियम-ग्रन्थ ), व्याकरण, छन्दःशास्त्र, निरुक्त ( व्युत्पत्तिशास्त्र.), ज्योतिष तथा कल्प ( यज्ञादि-प्रयोगों के उपपादन-ग्रन्थ ) के नाम से प्रसिद्ध हैं।' इनके सम्यग् अध्ययन के बिना वेदों को यथावत् समझना तथा याज्ञिक रूप में उनका क्रियान्वयन सम्भव नहीं हो सकता; अतः उनका अध्ययन आवश्यक माना गया ।
वेदों के TNT
वेदार्थ की और अधिक स्पष्टता तथा जन-ग्राह्यता साधने के हेतु उपर्युक्त वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के चार उपांगों की कल्पना की गयी, जिनमें पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्सशास्त्र का स्वीकार हुआ। यह भी प्रावश्यकता के अनुरूप हुआ और इससे अभीप्सित ध्येय सधा भी। फलत: वेदाध्ययन में सुगमता हुई।
उपवेदों की परिकल्पना
वैदिक साहित्य में चारों वेदों के समकक्ष चार उपवेदों की भी कल्पना हुई, जो प्रायुर्वेद, गान्धर्व वेद ( संगीत-शास्त्र ), धनुर्वेद और अर्थशास्त्र ( राजनीति-विज्ञान ) के रूप में प्रसिद्ध हैं।
१. छन्दः पादौ तु वेदस्य, इस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते ।
ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्त श्रोत्रमुच्यते ।। शिक्षा प्रारणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् ।। तस्मात् सांगमधोत्यव, ब्रह्मलोके महीयते ॥
-पाणिनीय शिक्षा, ४१-४२ २. (क) संस्कृत-हिन्दी कोश : आप्टे, पृ० २१४ (ख) Sanskrit-English Dictionary, by Sir Monier M. Williams, P. 213
पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रांगमिथिताः वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ।
-याज्ञवल्क्य स्मृति, १-३
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