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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४२७ दोनों प्रकार के अर्थों -विवेचनों की संग्राहिका, ग्रन्थ-पद्धतियां तूलिकाए हैं। चूणिकार ने बतलाया है कि दृष्टिवाद में परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में जो अभणित या अव्याख्यात है, उसे चूलिकाओं में व्याख्यात किया गया है। प्रारम्भ के चार पूर्वो' की जो चूलिकाएं हैं, उन्हीं का यहां अभिप्राय है। दिगम्बर-परम्परा में ऐसा नहीं माना जाता। वहां चूलिका के पांच भेद बतलाये गये हैं : १. जलगत, २. स्थलगत, ३. मायागत ४. रूपगत तथा ४. प्राकाशगत । ऐसा अनुमेय है कि इन चूलिका-भेदों के विषय सम्भवतः इन्द्रजाल तथा मन्त्र-तन्त्रात्मक आदि थे, जो जैन धर्म की तात्विक ( दार्शनिक ) तथा समीक्षा-प्रधान दृष्टि के आगे अधिक समय तक टिक नहीं सके; क्योंकि इनको अध्यात्म-उत्कर्ष से संगति नहीं थी। द्वादश उपांग उपir प्राचीन परम्परा से श्रु त का विभाजन अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य के रूप में चला पा रहा है। नन्दी सूत्र में अंग-बाह्य का कालिक और उत्कालिक के रूप में विवेचन हुआ है। जो सूत्र-ग्रन्थ अाज उपांगों में अन्तर्गभित हैं, उनका उनमें समावेश हो जाता है । अंग-ग्रन्थों के समकक्ष उतनी ही ( बारह ) संख्या में उपांग-ग्रन्थों का निर्धारण हुआ । उसके पीछे क्या स्थितियां रहीं, कुछ भी स्पष्ट नहीं है। आगम-पुरुष की कल्पना की गयी। जहां उसके अंग-स्थानीय शास्त्रों की परिकल्पना और अंग-सूत्रों की तत्स्थानिक प्रतिष्ठापना हुई, वहां उपांग भी कल्पित किये गये। इससे अधिक सम्भवतः कोई तथ्य, जो ऐतिहासिकता की कोटि में प्राता हो, प्राप्त नहीं है। प्राचार्य उमास्वाति के तत्वार्थ-भाष्य में उपांग शब्द व्यवहृत हुआ है । r: 34T : 'असादृश्य __ अंग गणधर-रचित हैं। उनके अपने विषय हैं। उपांग स्थविर रचित हैं। उनके अपने विषय हैं। विषय-वस्तु, विवेचन आदि की दृष्टि से वे परस्पर प्राय: असदृश या भिन्न हैं । उदाहरणार्थ, पहला उपांग पहले अंग से विषय, विश्लेषण प्रस्तुतीकरण आदि की दृष्टि से सम्बद्ध होना चाहिए, पर, वैसा नहीं है। यही लगभग सभी उपांगों के सम्बन्ध (१) उत्पाद, (२) अग्रायणीय, (३) वीर्यप्रवाद, (४) अस्ति-नास्तिप्रवाद । २. अथ कास्ताश्चूलाः ? इह चूला शिखरमुच्यते। यथा मेरौ चूलाः, तत्र चूला इव चूला दृष्टिवादे परिकर्मसूत्र पूवानुयोगोक्तानुक्तार्थसंग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयः। तथा चाऽह चूरिणकृत्-दिठिवाए जं परिकम्मसुत्तपुवाणजोगे चूलिअं न भरिणयं, तं चूलासु भरिणयं ति । अत्र सूरिराह चूला आदिमानां चतुर्णा पूर्वाणाम. शेषाणि पूर्वाण्यचूलिकानि, ता एव चूलाः.... -अभिधानराजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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