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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड । २ व्यापकता इतनी अधिक है कि उसमें सब प्रकार का ज्ञान समाविष्ट हो जाता है। कुछ भी अवशेष नहीं रहता । यही कारण है कि चतुर्दश पूर्वधर की संज्ञा श्रत-केवली है । पूर्वगत को दृष्टिवाद का जो एक भेद कहा गया है, वहाँ सम्भवतः एक भिन्न दृष्टिकोण रहा है। पूर्वगत के अतिरिक्त अन्य भेदों द्वारा विभिन्न विधाओं को संकेतित करने का अभिप्राय उनके विशेष परिशीलन से प्रतीत होता है। कुछ प्रमुख विषय-ज्ञान के कतिपय विशिष्ट पक्ष, जिनकी जीवन में अपेक्षाकृत विशेष उपयोगिता होती है, विशेष रूप से परिशीलनीय होते हैं; अतः सामान्य-विशेष के दृष्टिकोण से यह निरूपण किया.पया प्रतीत होता है । अर्थात् सामान्यतः तो पूर्वगत में समग्र ज्ञान-राशि समाई हुई है ही, पर, विशेष रूप से तद्-व्यतिरिक्त भेदों की वहाँ अध्येतव्यता विवक्षित है।
भेद-प्रभेदों के रूप में विस्तार
दृष्टिवाद के जो पांच भेद बतलाये गये हैं, उनके भेद-प्रभेदों के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। उनसे अधिगत होता है कि परिकर्म के अन्तर्गत लिपि-विज्ञान और गणित का विवेचन था । सूत्र के अन्तर्गत छिन्नछेदनय, विच्छन्न छेदनय तथा चतुर्नय आदि विमर्शपरिपाटियों का विश्लेषण था । छिन्नछेदनय व चतुर्नय की परिपाटियां निर्ग्रन्थों द्वारा तथा अच्छिन्नछेदनयात्मक परिपाटी पाजीवकों द्वारा व्यवहृत थी। आगे चल कर इन सबका समावेश जैन नयवाद में हो गया ।
अनयोग का तात्पर्य
दृष्टिवाद का चतुर्थ भेद अनुयोग है, उसे प्रथमानुयोग तथा गण्डिकानुयोग' के रूप में दो भागों में बांटा गया है। प्रथम में प्रर्हतों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान प्रादि से सम्बद्ध इतिवृत्त का समावेश है, जब कि दूसरे में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि महापुरुषों के चरित का। जिस प्रकार के विषयों के निरूपण की चर्चा है, उससे अनुयोग को प्राचीन जैन पुराण की संज्ञा दी जा सकती है। दिगम्बर-परम्परा में इसका सामान्य नाम प्रथमानुयोग ही प्राप्त होता है ।
दृष्टिवाद के पंचम भेद चूलिका के सम्बन्ध में कहा गया है-चूला ( चूलिका ) का अर्थ शिखर है। जिस प्रकार मेरु पर्वत के चूलाए ( चूलिकाए) या शिखर हैं, उसी प्रकार दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में उक्त और अनुक्त ;
१. इहैकवक्त्व्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते । तासामनुयोगोऽर्थकथनविधिण्डिकानुयोगः ।
-अभिधान राजेन्द्र, तृतीय भाग, पृ० ७९१
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