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भाषा और साहित्य ]
तय बह
द्वितीय भद्रबाहु वे थे, जिन्होंने दश नियुक्तियों की रचना की, जो उपसर्ग-हर-स्तोत्र के रचियता थे । वे भद्रबाहु संहिता के भी कर्त्ता माने जाते हैं । वे निमित्त शास्त्र के महान् वेत्ता थे । अतएव वै नैमित्तिक भद्रबाहु के नाम से प्रसिद्ध हैं । यह भी जनन् ति है कि महान् ज्योतिर्विद वराहमिहिर ने पंचसिद्धान्तिका के अन्त में जो सूचित किया है, वह शक संवत् ¥२७ है । तदनुसार वराहमिहिर का समय विक्रम संवत् ५६२ (वीर - निर्वारण संवत् १०३२) होता है । ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भाई होने को जन श्रुति को यदि मान्य किया जाये तो इन नैमित्तिक भद्रबाहु का समय भी इसी के आस-पास होना चाहिए ।
शौरसेनी प्राकृत और उसका बाङमय
श्वेताम्बर - परम्परा में दिगम्बर-मत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित कथानक का भद्रबाहु के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । प्रसंगोपात्त होने से यहां भद्रबाहु के सम्बन्ध मैं श्वेताम्बर - मान्यता की दृष्टि से संकेत मात्र किया गया है।
आचार्य भद्रबाहु : कुछ ऐतिहासिक तथ्य
इतिहास का एक उलझा हुआ पहलू है - श्रुत- केवली आचार्य भद्रबाहू तथा चन्द्रगुप्त मौर्य को समसामयिकता । दोनों को कुछ विद्वान् समसामयिक कहते हैं । इस संदर्भ में श्वेताम्बर जैन वाङ्मय में कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हैं, जिनकी यहां चर्चा उपयोगी होगी ।
तित्योगालीपइना
तित्थोगालीपना में लिखा है कि तीर्थकर महावीर जिस रात को मुक्तिगामी हुए, उसी रात को अवन्ती में पालक का राज्याभिषेक हुआ । पालक का राज्य ६० वर्ष तक रहा । उसके पश्चात् नन्दों का राज्य १५५ वर्ष तक चला । नन्द- राज्य के अनन्तर मौर्यो का राज्य आया, जिसकी अवस्थिति १०८ वर्ष तक रही । मौर्यों के बाद पुष्यमित्र का राज्य हुआ, जो ३० वर्ष तक चला। इस काल-गणना के अनुसार मौर्यों के राज्य का आरम्भ वीरनिर्वाण संवत् २१५ में होता है ।
१. सप्ताश्विवेदसंख्यं, शककालमपास्य चैत्रशुक्लादो
अधस्तिमिते भानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाद्य ॥
( सप्त = ७, अश्वि = २, वेद
४ अर्थात् ४२७ )
२. जं रर्याणि कालगओ, अरिहा
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तित्थंयरो महावीरो ।
तं रयणिमवंतीए, अभिसित्तो पालओ राया ॥
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