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आगम और विपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड र
यहां एक बात विशेष रूप से विचारणीय है- जहां पीछे उल्लिखित कथानकों में प्राचार्य भद्रबाहु के साथ उज्जयिनी के राजा चन्द्रगुप्ति का ओ नाम आया है, वह सम्भवतः गुप्तगुप्ति हो। गुर्वावलिकार ने गुप्त गुप्ति के लिए जो अशेषनरनायकवन्दिताधिः (जिनके चरण समस्त राजन्य वर्ग से पूजित हैं) विशेषण दिया है, वह उनके राजत्व से श्रमरणजीवन में आने की और इंगित करता है । दोनों नामों के उत्तराद्ध में आये हुए गुप्ति शब्द से भी यह अनुमेय है कि जिसे चन्द्रगुप्ति के नाम से अभिहित किया गया है, वह शायद गुप्तगुप्ति ही हो। अत: पूर्वोक्त कथानकों का सम्बन्ध चन्द्रगुप्ति के बजाय गुप्तगुप्ति से माना जाये—यह भी गवेषणीय है। ऐसा लगता है कि मूल कथानक भ्रान्तिवश काल-कम से परिवद्धित एवं अतिरंजित होते हुए प्राप्त रूपों तक पहुंचे हों।
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- वीर-निर्वाण संवत् ६८३ में एकादशांग के विच्छेद होने के अनन्तर एक भद्रबाहु आचार्य और होते हैं, जो निमित्त-शास्त्र के महान् वेत्ता थे। पिछले कथानकों में भद्रबाहु को यत्र-तत्र जो महान् नैमित्तिक के रूप में उपस्थित किया गया है, वह भ्रमवश हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि विक्रमाब्द १३६ में घटित घटना से जिन भद्रबाहु का सम्बन्ध जोड़ा जाता है, वे नैमित्तिक भद्रबाहु कैसे हो सकते हैं ? तिलोयपण्णत्ती के अनुसार वे तो आचारांगधर थे और लोहाचार्य से पूर्ववर्ती थे । पर नाम साम्य से भ्रम पर भ्रम बढ़ते चले गये । संकेत किया ही गया है, इन कथानकों की रचना में ऐतिहासिकता की ओर कम-से-कम ध्यान रहा है।
হননা-থবা ঐ সরকাঃ ।
श्वेताम्बर-परम्परा में भी प्रथम भद्रबाहु वहीं हैं, जो श्र त-केवली थे। उन्होंने छेद-सूत्रों की रचता की। उनके समय के सम्बन्ध में पीछे कहा गया है, बीर-निर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् वे दिवंगत हुए । आचार्य हेमचन्द्र ने भी परिशिष्ट पर्व में उनके दिवंगमन का यही समय सूचित किया है।
१. वीरमोक्षावर्षशते सप्तत्यग्रे गते सति ।
भद्रबाहुरपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ।।
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग ९, श्लोक ११२
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