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भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वामय । ५३५
तिलोयपग्णत्ती के अनुसार वीर-निर्वाण संवत् ५६५ तक एकादशांगधरों का अस्तित्व रहा । तत्पश्चात् केवल आचारांग के धारक हुए, जिनका समय तिलोयपण्णत्तीकार ने ११८ वर्ष का बतलाया है। यों आचारांगधरों का काल वीर-निर्वाण संवत् ५६५ तथा ६८३ के मध्य प्राता है अर्थात इन ११८ वर्षों में सुभद्, यशोभद्, यशोब्राहु एवं लोहामंमे चार भाचार्ष होते हैं।
इन चारों में तीसरे यशोभद्र दिगम्बर-परम्परा में भद्धाहु भी कहे जाते हैं । मादीभाम्नाय को प्राकृत-पट्टावलि में उन्हें यशोबाहु के स्थान पर भद्रबाहु कहा गया है । परन्तु इतना अन्तर अवश्य है, तिलोयपण्णत्तीकार जहां उन्हें आचारांगधर के रूप में व्याख्यात करते हैं, इस पट्टावलि में उन्हें अष्टांगधर कहा गया है। परन्तु इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि एक ही व्यक्ति के लिए ये दो प्रकार के कथन हैं; क्योंकि तिलोयपणती में जहां यशोबाहु सत्ताईसवें स्थान पर पाते हैं, वहां इस पट्टावलि में भद्रबाहु भी सत्ताईसवें स्थान पर पाते हैं। नन्दि-प्राम्नाय की इस पट्टावलि के कुछ विवेच्य विषय, जिनका आगे के प्रकरण से सम्बन्ध है, यथाप्रसंग स्पष्ट किये जायेंगे ।
भद्रबाहु: गुप्त गुप्तिः चन्द्रगुप्ति
नन्दीसंघ की संस्कृत-गुर्वावलि में प्राचार्य भद्रबाहु के पट्टधर गुप्तगुप्ति' का उल्लेख है । पूर्वापर प्रसंग के पर्यालोचन से प्रतीत होता है कि ये वही भद्रबाहु हैं, जिन्हें तिलोयपण्णत्ती में आचारांगधरों में यशोबाहु के नाम से अभिहित किया गया है ।
१. सुभदं च जसोभई भद्दबाहु कमेण च ।
लोहाचम्य मुणीसं च कहियं च जिणगमे ।। १३ ॥ छह अट्ठारहवासे तेवीस वावण (पणास) वास मुणिणाहं । - बस णव अटुंगधरा दुसदवीस सधेसु ।। १४ ॥
-जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, सन १९१३ में उद्धत श्रीमानशेषनरनायकवन्दितांघ्रिः, श्रीगुप्तिगुप्त इति विश्रु तनामधेयः । यो भद्रबाहुमुनिपुंगवपट्टपमः, सूर्यः स वो दिशतु निर्मलसंघवृद्धिम् ॥१॥
-वही, १.४, पृ० ५१ पर उडत
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