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भारत से बाहर प्राप्त प्राकृत - लेख
पालि पिटक बाङ्मय तथा प्राकृत ( अद्धमागधी ) - जैन आगम वाङमय की प्राचीनता और मूल्यवत्ता अनेक दृष्टियों से समकक्षता लिये हुए है । क्रमागत रूप में उनसे सम्बद्ध यहां विचार किया जाना चाहिए, पर, यह अधिक उपयुक्त होगा कि भारत से बाहर प्राप्त प्राकृतों पर पहले विचार करें । अशोक के शिलालेखों - विशेषतः उत्तर-पश्चिमी शिलालेखों से उनकी विशेष निकटता है ।
संक्रान्ति-काल
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं ( Middle Indo-Aryan Languages ) का काल ई० पू० ५०० से १००० ई० तक माना गया है। इसे प्राकृत काल कहा गया है । यह ( प्राकृत- काल ) भी तीन भागों में बांटा गया है- १. प्रथम प्राकृत (Early Middle Indo-Aryan) काल, २. द्वितीय प्राकृत (Middle Middle Indo-Aryan ) काल तथा ३. तृतीय प्राकृत ( Later Middle Indo-Aryan Language ) काल प्रथम प्राकृत काल का समय मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा-काल के प्रारम्भ से अर्थात् ई० पू० ५०० से ई० सन् के प्रारम्भ तक माना जाता है । शिलालेखी प्राकृत को लिया गया है । द्वितीय प्राकृत-काल माना जाता है । इस काल की भाषा का नाम प्राकृत है । शौरसेनी, पेशाची, महाराराष्ट्री आदि प्राकृते जाती हैं। १००० ई० तक माना जाता है । यह अपभ्रंश के उद्भव, विकास एक दूसरा विभाजन
इस प्रथम काल में पालि और ईसवी सन् से ५०० ई० तक उसके अन्तर्गत अर्द्धमागधी,
तृतीय
प्राकृत-काल ५०० ई० से और प्रसार का समय 1
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कुछ विद्वानों ने मध्य भारतीय भायं भाषा काल के अन्तर्वर्ती विभाजन में एक भिन्न क्रम भी अपनाया है । उनके अनुसार प्रथम प्राकृत अर्थात् पालि और शिलालेखी प्राकृत का काल ई० पू० ७०० से ई० पू० २०० तक या चार सौ वर्षों का है । द्वितीय प्राकृतकाल उनके मन्तव्यानुसार २०० ईसवी से ७०० ईसवी तक है । इस प्रकार ई० पू० २०० से २०० ई० तक का बीच का समय बच जाता है, जिसे संक्रान्ति-काल माना गया है ।
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