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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
मात्र काया है । अभ्य भी ऐसे अनेक देशी रूप रहे होंगे, जिन्हें पुरावर्ती वैयाकरण देशी में गिनाते रहे हों । यह वस्तुस्थिति थी । संस्कृत के ढांचे में प्राकृत को सम्पूर्णतः डालने के अभिप्रेत से चला यह आदेशमूलक क्रम भाषा विज्ञान की दृष्टि से समुचित नहीं था । बलात् व्याकरण के सांचे में उतारने से भाषा के वास्तविक स्वरूप को समझने में भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है। पर, क्या किया जाता, युग का मोड़ हो सम्भवतः बेसा था ।
संस्कृत-नाटकों पर दृष्टिपात करने से इस तथ्य पर और प्रकाश पड़ता है । प्रसंगोपाततया जैसी कि चर्चा की गयी है, संस्कृत - प्राकृत-रचित नाटकों में सम्भ्रान्त या उच्च कुलोत्पन्न पुरुष पात्र संस्कृत में बोलते हैं तथा साधारण पात्र ( महिला, बालक, भृत्य आदि) प्राकृत में बोलते हैं । नाटकों को यह भाषा सम्बन्धी परम्परा प्राकृत की जन भाषात्मकता की द्योतक है । यहां ज्ञातव्य यह है कि इन ( उत्तरवर्ती काल में रचित ) नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों का सुक्ष्मता से परिशीलन करने पर प्रतीत होता है कि सोचा संस्कृत में गया है और उस ( सोची हुई शब्दावली ) का प्राकृत में अनुवाद मात्र कर दिया गया है। भारचयं तब होता है, जब नाटकों के कई प्रकाशनों में यहां तक देखा जाता है कि प्राकृत भाग की संस्कृत-छाया तो मोटे टाइप में दी गयी है और मूल प्राकृत छोटे टाइप में । अभिप्राय स्पष्ट है, प्राकृत को सर्वथा गौण समझा गया । मुख्य पठनीय भाग तो उनके अनुसार संस्कृतछाया है ।
नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत स्वाभाविक कम प्रतीत होती हैं, कृत्रिम अधिक प्राकृतों को नाटकों में रखना नाट्यशास्त्रीय परम्परा का निर्वाह मात्र रह गया । सारांश यह है कि जहां साहित्य-सर्जन का प्रसंग उपस्थित होता, सर्जक का ध्यान सीधा संस्कृत की ओर जाता ।
देश्य शब्दों का उद्गम
किया है । उनमें से कइयों का सोचना है, आर्यों का पहला समुदाय,
देश्य भाषाओं के उद्गम स्रोत के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अनेक दृष्टियों से विचार जो पंचनद व सरस्वतीती की घाटी से होता हुआ मध्यदेश में आबाद हो चुका था, जब बाद में आने वाले मार्थों के दूसरे दल द्वारा वहां से खदेड़ दिया गया, तब वह मध्यदेश के चारों मोर बस गया। पहला समूह मुख्यतः पंचनद होता हुआ मध्यदेश में रहा, जहां वैदिक वाङमय की सृष्टि हुई ।
जो मायं मध्यदेश के चारों और के भूभाग में रहते थे, उनका वाख्यवहार अपनी प्रादेशिक प्राकृतों में चलता था । प्रदेश भेद से भाषा में भिन्नता हो ही जाती है । इसलिए मध्यदेश में रहने वाले भार्यों की प्राकृत से मध्यदेश से बाहर रहने वाले आर्यों की प्राकृते किन्हीं अंशों में मिलती थीं, किन्हीं अंशों में नहीं । मध्यदेश के आर्यों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं छन्दस् के अधिक मिकट रही होंगी; क्योंकि चन्दस् उसी भूभाग की
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