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________________ भाषा और साहित्य ] भारत में लिपि-कला का उद्भव और विकास [२८१ रूप अस्तित्व में नहीं आया। विद्वानों की मान्यता है कि इस प्रकार के माध्यम की खोज मानव ने ईसा से लगभग दश सहस्राब्दी पूर्व प्रारम्भ की थी। उसके छः सहस्राब्दियों के प्रयत्न के परिणाम स्वरूप लिपि अस्पष्ट और मव्यवस्थित ही सही, प्रादुभूत हुई, जो उत्तरोत्तर विकसित होती गयी। चित्र-लिपि चित्रों के माध्यम से अपने मनोभाव व्यक्त करने के उपक्रम को चित्र-लिपि को संज्ञा दी गयी। इस उपक्रम में प्रारम्भ के चित्र बहुत ही अपूर्ण और भद्दे रहे होंगे। उस समय के मानव का क्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था; अतः मानव, मानव के साथी पशु, जीव-जन्तु, उसके द्वारा प्रयोज्य वनस्पतियां आदि के चित्र उसने बनाये होंगे। इस प्रयत्न में कुछ ऐसे टेढ़े-मेढ़े चित्र भी बन गये होंगे, जो कुछ-कुछ ज्यामितीय आकारों से मिलते-जुलते होंगे। देववाद का युग था। पूजा, उपासना, तत्सम्बन्धी कर्मकाण्ड सम्पादित करने के हेतु देवी-देवताओं के चित्र भी बने होंगे। ऐसे चित्र पर्वतीय कन्दराओं, भित्तियों आदि पर बने होंगे। पत्थर, हड्डी, पशुओं के चम, वृक्षों की छाल, मिट्टी के बर्तन, हाथी-दांत आदि का भी इन चित्रों के हेतु उपयोग हुआ प्रतीत होता है। अभिव्यंजना अविकसित दशा से विकास की ओर गति करना मानव का स्वभाव है। आदि काल में मानव का अधिकतम सम्बन्ध स्थूल जगत् से षा; अतः जिन प्राणियों, पदार्थों व वस्तुओं के सम्बन्ध में कुछ प्रकट करना होता, तो वह उन प्राणियों, पदार्थों तथा वस्तुओं के चित्र अंकित करने का प्रयत्न करता । जैसे, मनुष्य के लिए मनुष्य का चित्र, उसके अंगोपांगों के लिए उसके अंगोपांगों के चित्र, पशुओं के लिए पशुओं के चित्र, सूर्य-चन्द्र ष तारों के लिए बड़े-छोटे गोल आकार । सूर्य को रश्मियां द्योतित करने के लिए अपेक्षाकृत बड़े गोले से उसके चारों ओर निकलती हुई रेखाए अंकित करना, ऐसा कुछ उपक्रम था। इस प्रकार उस युग में मानव को अपना कुछ बताने और दूसरों का समझ लेने में किंचित् सन्तोष प्राप्त हो जाता । * ऐसा प्रतीत होता है; चित्रात्मक आधार से मानव का कुछ समय काम चला होगा। एक तथ्य ज्ञातव्य है कि चित्र-लिपि केवल स्थूल वस्तु को व्यक्त करने मात्र की क्षमता के कारण अपरिपूर्ण थी। पर, इसमें सार्वजनीनता और सघदेशीयता अवश्य थी, क्योंकि स्थूल दृष्ट्या मनुष्य, पशु, पर्वत, नदी आदि प्राय: सर्वत्र सदृश होते हैं। उदाहरणार्थ, उनका आकार जो पश्चिम एशिया में बनता, वैसा ही अमेरिका के किसी देश में बनता और उसे उसी अर्थ में समझ भी लिया जाता, यद्यपि दोनों के बीच बहुत दूरी होती। इस तरह एक प्रकार से यह लिपि, चाहे जैसी ही सही, विश्वजनीन या अन्तर्राष्ट्रीय कही जा सकती है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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