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________________ भाषा और साहित्य ] आर्य (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङ् मय [ ४८५ द्वारा चौरासी सहस्र प्रकीर्णकों की रचना की गयी । दूसरे से तेईसवें तक के तीर्थंकरों के शिष्यों द्वारा संख्येय सहस्र प्रकीर्णक रचे गये । चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर के शिष्यों द्वारा चौदह सहस्र प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना की गयी । नन्दी सूत्र मैं इस प्रसंग में ऐसा भी उल्लेख है कि जिन-जिन तीर्थंकरों के औत्पातिकी, aft, कार्मिक तथा पारिणामिकी; चार प्रकार की बुद्धि से उपपन्न जितने भी शिष्य होते हैं, उनके उतने ही सहस्र प्रकीर्णक होते हैं। जितने प्रत्येक बुद्ध होते हैं, उनके भी उतने ही प्रकीर्णक-प्रन्थ होते हैं । मन्दी सूत्र के टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है कि अर्ह प्ररूपित श्रत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य भी ग्रन्थ रचना करते हैं, उसे प्रकीर्णक कहा जाता है। अथवा अर्हत् उपदिष्ट श्रत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य धर्म देशना आदि के सन्दर्भ में अपने वचन कौशल से ग्रन्थ पद्धत्यात्मक रूप में जो भाषण करते हैं, वह प्रकीर्णक-संज्ञक हैं । 2 प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना तीर्थकरों के शिष्यों द्वारा होने की जब मान्यता है, तो यह स्थिति प्रत्येक-बुद्धों के साथ कैसे घटित होगी; क्योंकि वे किसी के द्वारा दीक्षित नहीं होते । वे किसी के शिष्य भी नहीं होते। इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि प्रव्राजक या प्रव्रज्या देने वाले आचार्य की दृष्टि से प्रत्येक-बुद्ध किसी के शिष्य नहीं होते, पर, तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट धर्म शासन की प्रतिपन्नता या तदनुशासन - सम्पृक्तता की १. एवमाइयाई चउरासीइं पइण्णग- सहस्साई भगवओ अरहओ उस हसामियस्स आइतित्थयरस्स । तहा संखिउजाई पइण्णगसहस्साइं मज्झिमगाणं जिणवराणं । चौद्दसपइण्णगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स । अहवा जस्स जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए dustry कम्मियाए परिणामियाए चउब्विहीए बुद्धिए उववेया, तस्स तत्तियाई पइण्णगुसहस्साइं । पत्तेय बुद्धा वि तत्तिया चेव । - नन्दी सूत्र, ५१ ... इह यद्भगव बर्हदुपदिष्टं श्रुतमनुसृत्य भगवतः श्रमणा विरचयन्ति तत्सवं 'प्रकीर्णकमुच्यते । अथवा श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचनकौशलेन धर्मदेशनाऽऽदिषु प्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्ते तदपि सर्वप्रकीर्णम् । -अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ३ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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