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________________ १०० ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ लें। इसका पद-पाठ क, ख, ग, घ- इस प्रकार होगा, जो क्रम-पाठ में कख, सग, गघ के रूप में परिवर्तित होगा। जटा-पाठ-क्रम-पाठ के त्रिविध मेल को मिलाने से जटा-पाठ निष्पन्न होता है अर्थात् जटा-पाठ में पहली बार में प्रथम पद, द्वितीय पद, दूसरी बार में द्वितीय पद, प्रथम पद, तीसरी बार में प्रथम पद, द्वितीय पद, चौथी बार में द्वितीय पद, तृतीय पद, पांचवीं बार में तृतीय पद, द्वितीय पद, छठी बार में द्वितीय पद, तृतीय पद उच्चारित होगा। प्रतीक रूप में कख. खक, कख, गख, खग से इसे समझा जा सकता है। घन-पाठ-जटा-पाठ में दो-दो पदों के तीन मेल बनाये गये। घन-पाठ में इनके स्थान पर दो-दो पदों के दो और तीन-तीन पदों के तीन मेल बना कर मन्त्र-पाठ के पांच रूप तैयार किये जाते हैं। प्रतीक रूप में इसे कख, खक , कखग, गखक, कखग से समझा जा सकता है। संहिता-पाठ को इन पाठ-क्रमों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से चार भागों में बांटा गया था। क्रम इतना व्यवस्थित ओर नियमित था कि भिन्न-भिन्न प्रकार से भिन्न-भिन्न खण्डों में उच्चरित पाठ को पुन: संहिता-पाठ में परिवर्तित करने में कुछ भी कठिनाई नहीं होती थी। यह विधि-क्रम यद्यपि दुरूह और अभ्यास-साध्य तो था, पर, वेदों के पाठ को सहस्राब्दियों तक सर्वथा शुद्ध, पूर्णतया अपरिवर्तित बनाये रखने में बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ । इसी कारण कहा जाता है कि सहस्रों वर्ष पूर्व जिस भाषा या शब्दावली में वेदों के मन्त्र रचित हुए, उनका ठीक वैसा ही रूप आज भी उपलब्ध है। भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है। उच्चारण स्वर घेदिक मन्त्रों की ध्वनियों को सर्वथा विशुद्ध बनाये रखने के लिए स्वर-विधान वैदिक साहित्य का महत्वपूर्ण प्रसंग है। चंदिकी प्रक्रिया में तीन स्वर माने गये हैं : उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। कण्ठ, तालु आदि उच्चारण-अघयव मुख के भीतर स्थित हैं। इन उच्चारण-अवयवों के ऊपर तथा नीचे के दो-दो भाग या रू.ण्ड है; इसलिए ये सह.ण्ड कहे जाते हैं। अन्तः प्रेरित वायु स्वर-यन्त्र को संस्पृष्ट या संघृष्ट करती हुई जब इन (उच्चारणअधयषों ) पर भाघात करती है, तब वर्ण उत्पन्न होते हैं। जब कोई स्वर इन उच्चारणअषयधों के ऊपर के भाग से उत्पन्न होता है, तब वह अपेक्षाकृत उच्च प्रतीत होता है। उसी का नाम उदात्त है। जब कोई रबर उच्चारण-.धयषों के नीचे के भाग से उचरित होता १. उच्चस्वात्तः ॥ अष्टाध्यायी ११२॥२९॥ ताल्वादिषु समागेषु स्थानछ भागे निम्मानोऽजुदात्तरशः स्यात् । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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