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________________ भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ ९९ बनता है । अनुभव ही विज्ञान-विशिष्ट ज्ञान है । इस प्रकार वह पुरुष विज्ञाता की स्थित में पहुंचता है ।" आचार्य के चरणों में बैठकर परिचर्या, दर्शन, श्रवण, मनन तथा बोध के सोपानों से उत्तरोत्तर बढ़ते-बढ़ते साधक के विज्ञातृ-दशा तक पहुंचने का यह क्रम पुराकाल की ज्ञानोपासना के श्रद्धा, विनय, सेवा, श्रम एवं अनुभूति सम्पृक्त पथ का संसूचक है । वेद-मन्त्रों के पाठ-कम __ वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में जरा भी त्रुटि न रह पाए और वेद-मन्त्र युग-युगान्तर तक यथावत् रूप में वेद-पाठियों की स्मृति में बने रहें, इसके लिए पैदिक विद्वानों ने कई प्रकार के उपाय किये। उनमें उनके द्वारा वेदों के पाठ के सम्बन्ध में किया गया क्रमविभाग बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने वेद-पाठ के पांच प्रकार निर्धारित किये : १-संहितापाठ, २-पद-पाठ, ३-क्रम-पाठ, ४-जटा-पाठ, ५-धन-पाठ । संहिता-पाठ-वेद में जो मन्त्र जिस प्रकार स्थित हैं, उनका ज्यों-का-त्यों यथावत् पाठ करना संहिता-पाठ कहा जाता है। पद-पाठ-वेद के किसी मन्त्र को अलग-अलग पदों में विभक्त कर उसका पाठ करना पद-पाठ कहा जाता है। उदाहरणार्थ, एक मन्त्र के प्रतीक के रूप में कखग को लेते हैं। इसका संहिता-पाठ होगा-कखग और पद-पाठ होगा-क, ख, ग । दोनों का भेद स्पष्ट है। संहिता-पाठ में कखग के रूप में मन्त्र के सभी पद एक साथ हैं तथा पद-पाठ में वे पद अलग-अलग हैं । जो पद अलग-अलग किये जाते हैं, उनमें प्रारम्भ तथा अन्त में स्वर-परिवर्तन के भिन्न-भिन्न नियम लागू होते हैं । वेद-पाठी के लिए उन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। तभी पाठ शुद्ध बन पाता है। नियमों का सम्यक्तया अवलम्बन कर किये गये पद-पाठ से पुन: संहिता-पाठ पूर्ण रूपेण शुद्ध बनता है; जैसा वह मन्त्र को पृथक्-पृथक् विभक्त करने से पूर्व था। क्रम-पाठ-पद-पाठ के शब्दों को अर्थात् 'प्रत्येक पद को एक-एक बार लिया जाता था और इस क्रम में पहले पद के शब्द को भी लिया जाता था तथा अगले पद के शब्द को भी। यह क्रम उत्तरोत्तर चलता रहता था। उदाहरणार्थ, किसी मन्त्र के प्रतीक-रूप में कखगघ १. ......." स यदा बलो भवति, अथ उत्थाता भवति। उत्तिष्ठन् परिचरिता भवति परिचरन् उपसत्ता भवति । उपसीदन् द्रष्टा भवति । श्रोता भवति। मन्ता भवति । बोद्धा भवति । कर्ता भवति। विज्ञाता भवति । -छान्दोग्योपनिषद्, अष्टम खण्ड, १ -छान्यायालय ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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