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________________ ९८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ रचनाए हैं, जिनमें मुझे मानवीय भावना अपने उच्चतम शिखर पर पहुंची हुई प्रतीत होती है।" 1 शोपेनहर ने लिखा है : “संसार में इस प्रकार का कोई अध्ययन (तत्त्व-चिन्तन ) नहीं है, जो उपनिषदों के समान लाभप्रद तथा उन्नयन की ओर ले जाने वाला हो। वे उच्चतम मानवीय मेघा की उपज हैं । शीघ्र या बिलम्ब से एक दिन ऐसा होना ही है कि यही जनता का धर्म होगा।' वेदों को स्मरण रखने की विशेष परम्परा रही है। चारों वेदों को आद्योपान्त अक्षरशः एवं स्वरशः कण्ठाग्र रखने वाले वेदपाठी ब्राह्मण होते रहे हैं कुछ आज भी मिल सकते है । द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि ब्राह्मणों की जातीय उपाधियां, सम्भव है, कभी वेदों के अभ्यास के कारण ही प्रवृत्त हुई हों । शिष्य गुरु से श्रवण कर वेद को ग्रहण करता था । वेद, जो श्रुति कहे जाते हैं, इसी आशय की ओर संकेत करते हैं। विद्या को गुरु से सुनकर हृद्गत तथा आत्मसात् करने का प्राचीन काल में बहुत बड़ा महत्व रहा है । बल या सत्व-सम्पन्न व्यक्ति किस प्रकार ज्ञानोपासना के क्रम में अग्रसर होता हुआ विज्ञातृत्व तक पहुंचता था, इसका छान्दोग्योपनिषद् में सुन्दर विवेचन किया गया है। वहां कहा गया है : “.."जब पुरुष बल या सत्व-सम्पन्न होता है, तभी वह उत्थानोन्मुख होता है। उत्थानोन्मुख होता हुआ वह परिचर्याशील होता है। परिचरिता होकर यह उपसदन करता है-गुरु के सान्निध्य में उपस्थित होता है। उपसन्न होकर वह आचार्य का दर्शन करता हैं अर्थात् उनके जीवन का एकाग्र भाव से दृष्टा बनता है । तब श्रोता, उनके कथन का तन्मय भाव से श्रवण करने वाला, बनता है । आचार्य का कथन-प्रतिपादन इस प्रकार उपपन्न है, ऐसा मनन करता है । मनन करने पर वह तथ्य का बौद्धा-ज्ञाता-यह तत्त्व ऐसा ही है, इस प्रकार जानने वाला होता है। ज्ञान की परिणति अनुष्ठान में होती है। वह पैसा आचरण करता है । आपरित जीवन में सहज ही अनुभूत 1. The upanished are the..........Sources of -the vedant philoso phy, a system in which human speculation seems to me have reached its very acme. -कल्याण, वर्ष ७, संख्या ८, 'ब्रह्मविद्या रहस्य' शीर्षक लेख से 2. In the world there is no study.........80 beneficial and so elevan ting as that of upanished.........( They ) are a product of the highest wisdom.........it is destined sooner or later to become the faith of the people. -कल्याण, वर्ष ७, संख्या ८, 'ब्रह्मविद्या रहस्य' शीर्षक लेख से Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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