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________________ भाषा और साहित्य 1 प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं [ १०१ है, तब उसे अनुदात्त। कहा जाता है। जिस स्वर के उच्चारण में उदात्तत्व तथा अनुदात्तत्व; दोनों का मिश्रण हो अर्थात् जो स्वर कण्ठ, तालु आदि उच्चारण-अवयवों के मध्य भाग से उच्चरित हों, वह स्वरित' कहलता है । स्थरों के पृथक्-पृथक् चिन्ह भी माने गये हैं। कतिपय वैदिक पाठ सचिन्ह उपलब्ध होते हैं। इससे उच्चारण में परिपूर्ण शुद्ध बने रहने में बड़ी सहायता प्राप्त होती है। वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में स्वर-शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। इतना ही नहीं, स्वरों के विपरीत उच्चारण को दूषित के साथ-साथ अनिष्ट-कारक भी बतलाया गया है। दैत्यराज वृत्र का कथानक स्वर-प्रयोग के पेपरीत्य के दुष्फल पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। दैत्यराज वृत्र ने देवराज इन्द्र के धध को उद्दिष्ट कर यज्ञ किया। आहुतियों के सम्पुट में इन्द्रशत्रवर्धस्व वाक्य रखा गया। इसका अभिप्राय यह था कि इन्द्र का शत्रु ( नाशक ) बढ़े । दैत्य-गुरु शुक्र इस सम्पुट के साथ आहुतियां देते थे। उच्चारण-क्रम में एक त्रुटि बनी। इन्द्रशत्रु पद में तत्पुरुष समास है। नियमतः यहां अन्त्य अक्षर उदात्त होता है। पर, आहुति-दाता ने पूर्वपद में उदात कर दिया। इससे यह समस्त ( इन्द्रशत्रु ) पद तत्पुरुष के स्थान पर बहुव्रीहि हो गया। क्योंकि बहुव्रीहि में पूर्व पद में उदात्त होता है। बहुनीहि होते ही पद का भाशय एकदम परिवर्तित हो गया। बहुव्रीहि होने पर इन्द्रशत्रुः पद की ध्युत्पत्ति इस प्रकार होती है-इन्द्र है शत्रु (नाशक) जिसका, वह इन्द्रशत्रु ।' समास बदलते ही दोनों पदों के अर्थ में सर्वथा विपरीतता हो गयी। तत्पुरुष में इन्द्रशत्रु पद वृत्र के लिये इन्द्र के शातयिता या नाशक रूप में उद्दिष्ट था, बहुव्रीहि हो जाने पर शातयिह-भाव ( नाशकत्व ) इन्द्र के साथ जुड़ गया। परिणामतः वर्धस्व का फल इन्द्र को मिला, वृत्र को नहीं । संग्राम में वृत्र मारा गया, इन्द्र विजयी हुआ, पद्धित हुआ। इसीलिए कहा गया है: १. नीचैरनुदात्तः ॥१२॥३०॥ ताल्गाविषु सभागेषु स्थानेष्वधोभागे निष्पान्नोऽ व् अनुदात्तसंशः स्यात् । २. समाहारः स्वरितः ॥१२॥३१॥ उदात्तानुदात्तत्वे वर्णधर्मों समाहीयेते यत्र सौऽच् स्वरितसंज्ञः स्यात् ॥ ३. इन्द्रस्य शत्रुः-शातयिता ॥ ४. समासस्य ॥६॥१॥२२३॥ अन्त उदात्तः स्यात् । ५. बन्नीहौ प्रकृया पूर्वपदम् ॥६॥२॥१॥ उदात्तस्वरितयोगिपूर्वपदं प्रकृत्या स्यात् । ६. इन्द्रः शत्रुर्यस्य स इन्द्रशत्रुः Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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