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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्रशत्रुः
स्वरतोऽपराधात् ॥ '
"
यदि मन्त्र स्वर और वर्ण से हीन हो, उसमें स्वर और वर्ण का शुद्ध प्रयोग न हो, मिथ्या या अशुद्ध प्रयोग हो, तो वह अभीप्सित अर्थ को व्यक्त नही कर सकता । मिथ्या प्रयुक्त स्वर वाग्वज्र बन जाता है । वह यजमान का वध कर डालता है स्वर-प्रयोग में हुए अपराध या भूल का परिणाम यजमान वृत्र का मरण था ।
इन्द्रशत्रुः पद में
safनियों के उच्चारण में सर्वथा यथावता और जरा भी इधर से उधर न होने की स्थिति बनाये रखने के लिए वैदिक विद्वान् कितने दृढ़ संकल्प थे, यह इस कथानक से स्पष्ट है ।
[ खण्ड :
वैदिक भाषा के विकास-स्तर
ऐसा माना जाता है कि ऋग्वेद पहले और दशवें मण्डल के अतिरिक्त भाषा की दृष्टि से अत्यन्त प्राचीन है । ऋग्वेद और अवेस्ता की की गयी तुलना इन्हीं ( प्रथम व दशम को छोड़कर अन्य मण्डलों ) अंशों से संयोजित करनी चाहिए। ऋग्वेद के प्रथम एवं दशम मण्डल की भाषा परवर्ती प्रतीत होती है ।
पाश्चात्य विद्वान् प्रो० आन्त्यां मैय्ये आदि का अभिमत है कि वैदिक संस्कृत का प्राचीनतम रूप आर्यों के पंजाब के आस-पास आने तक के समय का है । इन विद्वानों के मतानुसार वैदिक संस्कृत का दूसरा रूप उस समय का है, जब आर्य मध्य देश तक अग्रसर हो चुके थे। इस बीच वे उन उन भू-भागों में अपने से पहले बसने वाले लोगों के सम्पर्क में आ चुके थे, जिनकी भाषाओं का आर्यों की भाषा पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य था । वैदिक संस्कृत के एक तीसरे रूप की और कल्पना की जा सकती है, जो तब विकसित हुआ, जब आर्य मध्य देश से आगे बढ़ते हुए पूर्वीय भू-भाग में पहुंच चुके थे। विद्वानों का अनुमान है कि यह काल सम्भवतः ई० पू० ८००-९०० के समीप रहा होगा ।
१. पाणिनीय शिक्षा, ५२
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लौकिक संस्कृत
वेद और लोक; यह शब्द-युगल प्राचीन वाङमय में एक विशेष अर्थ के साथ प्रयुक्त है । जिस कार्य, विधि-विधान, परम्परा, भाषा आदि का सम्बन्ध, अपौरुषेय या ईश्वरीय ज्ञान के प्रतीक वेद के साथ रहा, उनके पीछे वैदिक विशेषण जुड़ा और जो कार्य ऐहिक और
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