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एक अवलोकन
डाक्टर मुनिश्री नगराजजी जैन दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान् हैं। उनकी 'पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' अपने ढंग की एकमात्र पुस्तक है। उसकी समीक्षा करने का सौभाग्य मुझे मिला था। बारह वर्ष बाद उन्होंने 'विश्व-भाषा-प्रवाह' नामक इस वृहद् ग्रन्थ की रचना की है। उनकी अत्यन्त व्यापक और उदार दृष्टि के कारण यह एक तरह से भारतीय भाषा-विज्ञान के इतिहास और प्रगति का संक्षिप्त विश्वकोश ही बन गया है।
इसमें प्रारम्भिक खण्ड भाषा के दर्शन का है। यास्क, पाणिनि, कात्यायन, पतंजलि के साथ-साथ मुनिश्री ने ग्रीक, लैटिन,, हिब्रू मान्यताओं का साक्ष्य प्रस्तुत किया है। वैदिक, बौद्ध और जैन विचार-धाराएं बड़ी सूक्ष्मता से प्रस्तुत की हैं। उनकी विवेचना तर्क-संगत और प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर ही की गई हैं; अत: इस सारी सामग्री में मतभेद का कहीं प्रश्न ही नहीं उठता। मुनिश्री ने सारी संभाव्य खण्डनमण्डनात्मक बातें स्वयं सामने रख दी हैं। एक व्यक्ति के इस अपार परिश्रम और दीर्घ अध्यवसाय को देखकर मैं विस्मित हो जाता हूं। एकान्त और एकाग्र सामग्री-चयन का ही यह प्रतिफल है।
भाषा के प्रति विभिन्न धर्म और मतवादों का क्या प्राग्रह रहा है, यह मुनिश्री की अगली विश्लेषणापरक मीमांसा का विषय रहा है। यद्यपि द्राविड़ भाषाओं के वैयाकरणों का मत यहां छटा-सा लगता है, फिर भी भारतीय आर्य भाषाओं का सम्यक् विचार इस खण्ड में है।
प्राचीन भाषाओं के भौगोलिक और ऐतिह्य सांस्कृतिक प्रवास पर विद्वानों में पर्याप्त मत-मतान्तर हैं-आर्य भारत में ही थे या बाहर से आये—यह एक ऐसा ही विषय है। बहुत कुछ हमारी धारणाएं पश्चिम के विद्वानों के काल-निर्णय निश्चित करने और उनके अपने पूर्वाग्रह के कारण उधार ली हुई हैं और उनसे उबरने के लिए हमें अपने मूल उत्सों की पोर जाना चाहिए। आज भी दुर्भाग्य से, भारत के प्रमुख विश्वविद्यालयों में भाषा विज्ञान विभागों के अध्यक्ष प्रादि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, रूस से ही अपना प्रकाश लेते हैं। बहुत कम विभागाध्यक्ष प्राचीन भारतीय या एशियाई भाषामों के अधिकारी विद्वान् हैं। पालि-प्राकृत, अपभ्रश के जानकर तो और भी कम हैं।
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