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आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय
४. समवायांग समवाय ' का अर्थ समूह या समुदाय होता है । इस सूत्र का वर्णन क्रम स्थानांग जैसा है । स्थानांग में एक से दश तक संख्याएँ पहुंचती हैं, जब कि इसमें वे संख्याएँ एक से प्रारम्भ होकर कोश्चनुकोटि ( कोडा-कोडी) तक जाती हैं । समवायांग में बारह अंगों संख्याक्रमिक वर्णन के अन्तर्गत यथाप्रसंग आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के नौ अध्ययनों सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के सोलह अध्ययनों, uttra मकाओ के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के उन्नीस अध्ययनों, दृष्टिवाद के कतिपय सूत्रों का
तथा उनके विषयों का उल्लेख है ।
राशिक 2 सूत्र - पद्धति से रचे जाने, उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों तथा चवालीस ऋषिभाषित अध्ययनों, अन्तिम रात्रि में भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित पचपन अध्ययनों तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के चौरासी हजार पदों आदि का इसमें उल्लेख है । नन्दी सूत्र की भी इसमें चर्चा है । इन उल्लेखों से ऐसा प्रकट होता है कि द्वादशांग के सूत्र - बद्ध हो जाने के पश्चात् इसका लेखन हुआ ।
वन-क्रम
भाषा और साहित्य ]
समवायांग में चौबीस कुलकरों, चौबीस तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों एव वासुदेवों का, उनके माता-पिता, जन्म स्थान आदि का नामानुक्रम से वर्णन किया गया है । उत्तम शलाका-पुरुषों की संख्या चौवन ( तीर्थकर २४ + चक्रवर्ती १२ + वासुदेव ९ + बलदेव ९ = ५४ ) दी गयी है, तिरेसठ नहीं । वहां प्रतिवासुदेवों को शलाका-पुरुषों में नहीं लिया गया है । इससे यह सम्भावित प्रतीत होता है कि उन्हें बाद में शलाकापुरुषों में स्वीकार किया गया हो । यह सारा वर्णन समवायांग के जिस अंश में है, उसे एक प्रकार से संक्षिप्त जैन पुराण को संज्ञा दी जा सकती है । जैन पुराणों के उपजीवक के रूप में निश्चय ही इस भाग का बड़ा महत्व है । भगवान् ऋषभ को यहां कौशलीय तथा भगवान् महावीर को वैशालीय कहा गया है, इससे भगवान् महावीर के वैशाली के नागरिक होने का तथ्य पुष्ट होता है ।
समवायांग में लेख, गणित, रूपक, नाट्य, गीति, वाद्यत्र आदि बहत्तर कलाओं का वर्णन है । ब्राह्मी लिपि आदि अठारह लिपियों तथा ब्राह्मी के छयालीस मातृका - अक्षरों की चर्चा है। इस पर प्राचार्य अभयदेव सूरि को टीका है ।
१. दुवाल संगे गणिविडए पन्नते । तं जहा - आयारे, सूयगड, ठाणे, समवाए, विवाहपन्नत्ती णायाधरमकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अरगुत्तरोववाइयदसाओ, पणहावागरणाई विवागसुए, दिट्टिवाए । से किं तं आयारे ? आयारेणं समरणारणं निग्गंथागंमाहिज्ज ||
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- समवायांग सूत्र, द्वादशांगाधिकार, पृ० २३१-३२
२. मंखलिपुत्र गोशालक का मत
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