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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ५. विवाह-पण्णत्ति ( व्याख्या-प्रज्ञप्ति ) - जीव-अजीव आदि पदार्थों की विशद. विस्तृत व्याख्या होने के कारण इस अंग का नाम व्याख्या-प्रज्ञप्ति' है। संक्षेप में भगवती सूत्र भी कहा जाता है। इसमें एकतालीस शतक हैं। प्रत्येक शतक अनेक उद्देशों (उद्देशकों) में बंटा हुआ है। प्रथम से आठ तक, बारह से चौदह तक तथा अठारह से बीस तक के शतकों में से प्रत्येक में दश-दश उद्देशक हैं। इसके अतिरिक्त अवशिष्ट शतकों में उद्देशों की संख्याएं न्यूनाधिक पाई जाती हैं। पन्द्रहवें शतक का उद्देशों में विभाजन नहीं है। उसमें मंखलिपुत्र गोशालक का चरित्र है। यह अपने आप में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है। व्याख्या प्रज्ञप्ति का सूत्र-क्रम से भी विभाजन प्राप्त होता है । इसमें कुल सूत्र-संख्या ८६७ है । ৪র্থন হীন व्याख्या-प्रज्ञप्ति की वर्णन-शैली प्रश्नोत्तर के रूप में है। गणधर गौतम जिज्ञासुभाव से प्रश्न उपस्थित करते हैं और भगवान् महावीर उनका उत्तर देते हैं या समाधान करते हैं। टीकाकार प्राचार्य अभयदेव सूरि ने इन प्रश्नोत्तरों की संख्या छत्तीस हजार बतलाई है। उन्होंने पदों की संख्या दो लाख अठासी हजार दी है। इसके विपरीत समवायांग में पदों की संख्या चौरासी हजार तथा नन्दी में एक लाख चौवालीस हजार बतलाई गयी है। ___ कहीं-कहीं प्रश्नोत्तर बहुत छोटे-छोटे हैं। उदाहरणार्थप्रश्न- भगवान् ! ज्ञान का फल क्या है ? उत्तर-विज्ञान । प्रश्न-विज्ञान का फल क्या है ? उत्तर-प्रत्याख्यान । प्रश्न-प्रत्याख्यान का फल क्या है ! उत्तर-संयम । कहीं-कहीं ऐसे प्रश्नोत्तर भी हैं, जिनमें पूरा शतक ही पा गया है। मंखलिपुत्र गोशाालक के वर्णन से सम्बद्ध पन्द्रहवां शतक इसका उदाहरण है। १. विविधाः-जीवाजीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः आ...... अभिविधिना कथांचन्निखिल ज्ञ यव्याप्त्या मर्यादया वा-परस्परासंकीर्ण-लक्षणाभिधानरूपया ख्यानानि-भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान्प्रतिप्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ताः प्रज्ञाप्यन्ते - प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभियस्याम् । ........'अथवा विवाहाविविधा विशिष्टा वार्थप्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते -प्ररूप्यन्ते प्रबोध्यन्ते वा यस्याम' -अभिधानराजेन्द्रः षष्ठ भाग, पृ० १२३८ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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