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बागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलम
ने यापनीयों, निर्ग्रन्थों और कूर्चकों को एक जागीर प्रदान की। उस सन्दर्भ में दान-पत्र में वर्णित प्राचार्य का नाम दामकीर्ति है। तदनन्तर मृगेश वर्मन् के पुत्र ने (४९७-५३७ ई.) जागीर में एक गांव, जिसकी प्राय से पूजा की तथा चातुमसि में यापनीय साधुओं के आहार की व्यवस्था की जाती रहे, प्रदान किया। वहां दामकीर्ति, जयकीर्ति, बन्धुसेन तथा कुमारदत्त नामक प्राचार्यों का उल्लेख है । सम्भवतः वे सभी यापनीय थे।
देववर्मन् के पुत्र कृष्ण वर्मन् (४७५-४८० ई०) ने यापनीय संघ के साधुओं को उनके देव-स्थान की व्यवस्था के लिए एक ग्राम प्रदान किया।"1.
इन उल्लेखों से प्रकट होता है कि कर्नाटक के शासक यापनीयों के प्रति श्रद्धाशील थे । यापनीयों के अपने देव-स्थान मन्दिर थे । वहां की संचालन-व्यवस्था यापनीय साधु देखते थे। यापनीयों के देव-स्थानों की पूजा आदि की सुव्यवस्था तथा साधुओं को चातुर्मास में आहार आदि का कष्ट न हो, इस और शासकों का विशेष ध्यान रहता था। इस हेतु वै जागीर में ग्राम प्रादि देते रहते थे।
विशेष चर्चा का प्रसंग तो नहीं है, केवल एक बात यहां देखने की है, यापनीय श्रमणों के आहार आदि की सुविधा के लिए राजा लोगों द्वारा जागीर आदि के अनुदान उन्हें कैसे ग्राह्य होते थे ? इससे ध्वनित होता है कि दैनन्दिन प्राचार में यापनीय साधुओं में दृढ़ता और कष्ट-सहिष्णुता कम होती जा रही थी।
1. Mradesh varman (475 10 490 A.D.) of the Kadamba dynesty has
given a grant to Yaraniyas, Nigranthas and Kurcakas. The teacher mentioned in the plate is Damakirti. Further his son (497-537 A.D.) also made a grant of village, out of the income of which the Puja etc. were to be performed and the Yapaniya ascetics to be fed for four months. The teachers mentioned here are Damakirti, Jayakirti, Bandhusena and Kumardatta. Possibly all of them Yapaniyas. Further Devavarman, the son of krisnavarman (475480 A.D.) made a donation of a village to the members of the Yapaniya Sangh in favour of their temple for its maintenance.
-Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol, LV, Poona 1974, Page 12.
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