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भाषा और साहित्य ]
शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय
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বিখশ্বাহৰ প্ৰাথ #
विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि भगवान् महावीर सिद्धिगत होने के छःसौ नो वर्ष बाद रथवीरपुर में बोटिक-दृष्टि-दिगम्बर-मत की उत्पत्ति हुई। इसके बाद मूल भाष्य की वही दो गाथाएं दी गई हैं, जिनका उल्लेख आवश्यक-नियुक्ति के उद्वरण के सन्दर्भ में हुआ है।
লম্বাহী ঔসধঃ ৫াহা প্লন খান৷
विशेषावश्यक भाष्य के वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्र ने शिवभूति की कथा का विस्तार से उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : “एक बार की घटना है, रथवीरपुर नामक नगर में आर्य कृष्ण नामक आचार्य प्राये। उस नगर में शिवभूति नामक एक राज-सेवक था। उसका दूसरा नाम सहस्रमल्ल था। वह राजा का विशेष कृपा-पात्र था; अतः नगर में मौज-मजे करता घूमता रहता। दो पहर रात बीते अपने घर आता । नित्यप्रति उसका वैसा पाचरण देख उसकी पत्नी बहुत दुःखित हुई । उसने एक दिन अपनी सास से, जिसका उसके प्रति बड़ा स्नेह था, कहा कि आपका पुत्र (मेरा पति) रात में कभी भी समय पर नहीं आता । उनकी प्रतिक्षा में मैं भोजन नहीं करती, जागती रहती हूँ। मैं बड़ी दुःखी हूं। उसकी सास बोली-बेटी ! यदि हर रोज ऐसा होता है, तो तुमने अब तक मुझे यह सब क्यों नहीं बताया ? खैर, चिन्ता मत करो। तुम आज सो जाओ । तुम्हारे बदले मैं जागूगी और उस अविनीत लड़के को शिक्षा दूंगी।"
__ सास के कहने से बहू उस दिन सो गई और बुढ़िया जागती बैठी रही । दो पहर रात गये शिवभूति आया। उसने दरवाजा खोलने के लिए आवाज लगाई। माता क्रुद्ध हो उठी। वह रोषपूर्वक बोली-"उन्मार्गगामी ! उद्धत लड़के ! इतनी रात बीते नगर में भटक कर आये हो ? इस समय जहां दरवाजा खुला हो, वहीं जाओ। मैं तुम्हें बुलाने तुम्हारे पीछे नहीं आऊंगी, न तुम्हारे बिना मैं मर ही जाऊंगी।"
माता के ऐसे क्रोध और अहंकारपूर्ण वचन शिवभूति को बहुत बुरे लगे। वह माता से रुष्ट होकर वहीं से वापिस लौट गया। वह नगर में फिरने लगा। फिरते-फिरते उस
१. छव्वाससयाई नवुत्तराई तइआसिद्धि गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण विट्ठी रहवीर पुरे समुप्पणा ॥
-विशेषावश्यक भाष्य, २५५०
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