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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४२१ अन्तकृद्दशा के तृतीय वर्ग के अष्टम अध्ययन में देवकी-पुत्र गजसुकुमाल का कथानक है, जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह कथानक उत्तरवर्ती जैन साहित्य में पल्लवित और विकसित होकर अवतारित हुआ है। छठे वर्ग के तृतीय अध्ययन में अर्जुन मालाकार का कथानक है, जो जैन साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है । स्वतन्त्र रूप से इस कथानक पर अनेक रचनाएं हुई हैं। अष्टम वर्ग में अनेक प्रकार की तपोविधियों, उपवा तथा व्रतों का वर्णन है। ६. अणुत्तरोववाइयदसाओ ( अनुत्तरोपपातिक दशा) नाभ: व्याख्या श्रुतांग में कतिपय ऐसे विशिष्ट महापुरुषों के आख्यान हैं, जिन्होंने तपःपूर्ण धर्मसाधना के द्वारा समाधि-मरण प्राप्त कर अनुत्तर विमानों में जन्म लिया, वहां से पुनः केवल एक ही बार मनुष्य-योनि में प्राना होता है अर्थात् उसी मानव-भव में मोक्ष हो जाता है । अनुत्तर प्रौर उपपात (उद्भव, जन्म) के योग से यह शब्द बना है, जो अन्वर्थक है ।। तीन वर्गों में यह श्रुतांग विभक्त है। प्रथम वर्ग में दश, दूसरे वर्ग में तेरह तथा तीसरे वर्ग में दश अध्ययन हैं। इनमें चरित्रों का वर्णन परिपूर्ण नहीं है। केवल सूचन मात्र कर अन्यत्र देखने का इंगित कर दिया गया है। प्रथम वर्ग में धारिणी-पुत्र जालि तथा तृतीय वर्ग में भद्रा-पुत्र धन्य का चरित्र कुछ विस्तार के साथ प्रतिपादित किया गया है। धन्य द्वारा प्रनगार की तपस्या, तज्जनित देह-क्षीणता प्रादि ऐसे प्रसंग हैं, जो महासोहनावसुत्त, कस्सपसोहनादसुत्त प्रादि पालि-ग्रन्थों में वरिणत बुद्ध की तपस्या-जनित दैहिक क्षीणता का स्मरण कराते हैं । বনসান ৭ : অপাহবুথ, পথখান ऐसा अनुमान है कि इस ग्रन्थ का वर्तमान में जो स्वरूप प्राप्त है, वह परिपूर्ण और यथावत् नहीं है। स्थानांग में इसके भी दश अध्यायों की चर्चा पाई है। प्रतीत होता है, प्रारम्भ के उपासकदशा तथा अन्तकृद्दशा की तरह इसके भी दश अध्ययन रहें हों, जो अब केवल तीन वर्गों के रूप में प्रवशिष्ट हैं। १. अगत्तरोववाइवसारणं दस अज्नयरणा पण्णत्ता तं जहा इसिदासेय धण्णेय, सुनक्खत्तय कित्तिये । संठाणे सालिभद्दए, आणंदे तेयली इय ॥ बसन्नभई अइमुत्त एमेते दस आहिया ॥ -स्थानांग सूत्र, स्थान १०, ९६ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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