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________________ भाषा और साहित्य] संक्रान्ति-काल को प्राकृतें [२७१ ज्येष्ठ > जेठ भादि । स्था धातु में स्थ >ठ मिलता है। उदा० स्थान> ठणेहि, उत्स्थान > उठन, काष्ठ > कठ, उष्ट्र> उठ । संयुक्त व्यंजन में यदि ऊल्म इवनि निहित हो, तो उसका परिवर्तन नहीं होता। उदा० अस्ति> अस्ति, वत्स> वत्स आदि । द्वितीया एक० -म् और प्रथमा एक० -स् का लोप मिलता है। द्विवचन का प्रयोग केवल दो उदाहरणों में मिलता है। उदा० पदेन्यां और पदेयो। षष्ठी एक० का रूप -अस विभक्तियुक्त मिलता है। क्रियाओं की काल-रचना में वर्तमान निश्चयार्थ, आज्ञा, विधि, भविष्य निश्चयाथं आदि के रूप मिलते । वर्तमान, विधि लिंग के रूप अशोकी प्राकृत के सदृश मिलते हैं। उदा० करेयसि, फरेयति, स्यति; अशोकी प्राकृत में उपकरेयति, सियति आदि रूप मिलते हैं। भूतकाल का विकास कर्मवाच्य कृदन्त में प्रथम पु• बहु. में -न्ति और उत्तम पु०, मध्यम पु. में वर्तमान निश्चयार्थ कर्तृवाच्य अस् के सदृश विभक्ति रूपों को जोड़ कर किया जाता है। उदा० श्रु तोस्मि> श्रु तेमि, श्रुतः स्मः> श्रुतम, वत्तोसि> दिसि आदि । कतृवाचक संज्ञा का विकास पश्चिमोत्तर अशोकी प्राकृत के सदृश त्वी, त्वा और इ प्रत्ययों के योग से होता है। उदा० श्रु निति, अपुछिति । पूर्वकालिक कृदन्त का विकास क्रियाक पंज्ञा अन के चतुर्थी एक० के रूप से होता है। उदा० गच्छनाय> गच्छनए, देयंनए । कुछ रूप तुमन् में भी मिलते हैं। उदा० कर्तु और करंनए, विसजिदूं और विसर्जनए। समीक्षा : तुलना उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में य संयुक्त व्यंजन अपरिवर्तित रहते हैं । निय प्राकृत में भी यह प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उत्तर-पश्चिम के शिलालेखों में संयुक्त व्यंजनों में र के स्थानपरिवर्तन की जो विशेष प्रवृति प्राप्त होती है, निय प्राकृत में वैसा बहुत कम है, लगभग नहीं के तुल्य है और न उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों में ही ऐसा है । प्राकृत-धम्मपद में ऐसा अवश्य मिलता है। . उतर-पश्चिम के शिलालेखों में ल-युक्त संयुक्त व्यंजनों में ल-लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है, किन्तु, निय प्राकृत में वैसे शब्दों में ल-युक्त रूप प्राप्त होते हैं। जैसे, शाहबाजगढ़ी और मानसेरा में अल्प के लिये अप तथा कल्प के लिए कप का प्रयोग हुआ है, किन्तु, उदाहरणार्थ, निय प्राकृत में अल्प के लिये अल्प तथा जल्पित के लिए अल्पित ही मिलते हैं, न कि अप और जपित। पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः क्ष के लिए छ आता है। निय प्राकृत में भी ऐसा ही है । स के लिये स का प्रयोग हुआ है। जैसे, चिकित्सा के लिए पहां चिफिस आया है। निय प्राकृत में ऐसा नहीं होता। वहां वत्स और संवत्सर के लिए Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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