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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय ५९५ जाति, चतुरिन्द्रिय-जाति और पंचेन्द्रिय-जाति के भेद से दश स्थानगत होने की अपेक्षा से दश प्रकार का कहा गया है ।। ७२-७३ ।। समवाय नाम का अंग एक लाख चौंसठ हजार पदों के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों के समवाय का वर्णन करता है अर्थात् सादृश्य - सामान्य से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जीवादि पदार्थों का ज्ञान कराता है । वह समवाय चार प्रकार का है - द्रव्य - समवाय, क्षेत्र - समवाय, काल - समवाय और भाव- समवाय । उनमें से द्रव्य - समवाय की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान हैं । क्षेत्र - समवाय की अपेक्षा से प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमन्तक नामक इन्द्रक बिल, ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजु नामक इन्दुक विमान और सिद्ध क्षेत्र समान हैं । काल की अपेक्षा से एक समय एक समय के बराबर है और एक मुहूर्त एक मुहूर्त के बराबर है । भात्र की अपेक्षा से केवल - ज्ञान केवल दर्शन के समान ज्ञेय-प्रमाण है, क्योंकि ज्ञान- प्रमाण ही चेतना - शक्ति की उपलब्धि होती है । व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम का अंग दो लाख अट्ठाईस हजार पदों द्वारा — क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादिक रूप से साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करता है । नाथधर्मकथा अथवा ज्ञातृधर्मकथा नाम का अंग पांच लाख छप्पन हजार पदों द्वारा सूत्र पौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधि से स्वाध्याय की प्रस्थापना हो- एतदर्थं तीर्थंकरों की धर्म देशना का, सन्देह - प्राप्त गणधरदेव के सन्देह दूर करने की विधि का तथा अनेक प्रकार की कथाओं व उपकथाओं का वर्णन करता है । उपासकाध्ययन नामक अंग ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा दर्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भ - विरत, परिग्रह - विरत, अनुमति - विरत और उद्दिष्ट - विरत — इन ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, उनके व्रत धारण करने की विधि और उनके आचररण का वर्णन करता है । अन्तकृद्दशा नामक अंग तेबीस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर और प्रातिहार्य अर्थात् अतिशयविशेष प्राप्त कर निर्धारण को प्राप्त हुए दश दश अन्तकृत् केवलियों का वर्णन करता है । तत्वार्थ भाष्य में भी कहा है : "जिन्होंने संसार का अन्त किया, उन्हें अन्तकृत् केवली कहते हैं । वर्द्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, बलीक, किष्किविल, पालम्ब, अष्टपुत्र – ये दश अन्तकृत् केवली हुए हैं। इसी प्रकार Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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