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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड:२
अंग-प्रविष्ट के सम्बन्ध में आचार्य वीरसेन ने निम्नांकित रूप में उल्लेख किया है:
"अंग-प्रविष्ट के अर्थाधिकार बारह प्रकार के हैं-१. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्या-प्रज्ञप्ति, ६. ज्ञातृधर्मकथा, ७. उपासकाध्ययन, ८. अन्तकृद्दशा, ९. अनुत्तरोपपातिक दशा, १०. प्रश्न-ध्याकरण, ११. विपाक सूत्र, तथा १२. दृष्टिवाद । इनमें से आचारांग अठारह हजार पदों के द्वारा—किस प्रकार चलना चाहिए ? किस प्रकार बैठना चाहिए ? किस प्रकार शयन करना चाहिए ? किस प्रकार भोजन करना चाहिए ? किस प्रकार संभाषण करना चाहिए और किस प्रकार पाप-कर्म नहीं बन्धता है ? (इस तरह गणधर के प्रश्नों के अनुसार) यत्न से चलना चाहिए, यत्नपूर्वक खड़े रहना चाहिए, यत्न से बैठना चाहिए, यत्नपूर्वक शयन करना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए, यत्न से संभाषण करना चाहिए । इस प्रकार आचरण करने से पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता है ॥ ७०-७१ ॥ इत्यादि रूप से मुनियों के प्राचार का वर्णन करता है।
सूत्रकृतांग छत्तीस हजार पदों के द्वारा ज्ञान, विनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहार-धर्म-क्रिया का प्ररूपण करता है तथा यह स्व-समय और पर-समय का भी निरूपण करता है ।
स्थानांग बयालीस हजार पदों के द्वारा एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानों का वर्णन करता है। उसका उदाहरण-महात्मा अर्थात् यह जीव-द्रव्य निरन्तर चैतन्यरूप धर्म से उपयुक्त होने के कारण उसकी अपेक्षा एक ही है। ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है। कर्म-फल-चेतना, कर्म-चेतना और ज्ञान-चेतना से लक्ष्यमान होने के कारण तीन भेद रूप है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के भेद से तीन भेद रूप है । चार गतियों में परिभ्रमण करने की अपेक्षा से इसके चार भेद हैं । प्रौदयिक आदि पांच प्रधान गुणों से युक्त होने के कारण इसके पांच भेद हैं। भवान्तर में संक्रमण के समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे-इस तरह छः संक्रमलक्षण अपक्रमों से युक्त होने की अपेक्षा से छः प्रकार का है । अस्ति, नास्ति इत्यादि सात भंगों से युक्त होने की अपेक्षा से सात प्रकार का है। ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों के आस्रव से युक्त होने की अपेक्षा से आठ प्रकार का है। अथवा ज्ञानावरणादि आठ कर्मों तथा आठ गुणों का आश्रय होने की अपेक्षा से आठ प्रकार का है। जीवादि नौ पदार्थों को विषय करने वाला अथवा जीवादि नौ प्रकार के पदार्थ-रूप परिणमन करने वाला होने की अपेक्षा से नौ प्रकार का है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, बायुका यिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, साधारण-वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय-जाति, त्रीन्द्रिय
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