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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाडमय
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महापुराण में इस तथ्य को और स्पष्ट किया गया है। वहां कहा गया है : "यद्यपि तपः शील श्रुत-ज्ञानियों की परम्परा मिट जायेगी, पर फिर भी आचार्य वीरसेन तथा तदनुगामी जिनसेन प्रभृति श्रत-वैभव के धनी, तपस्वी श्रमणों द्वारा श्रु त के एक देशप्रश का दुःषमा की समाप्ति से पूर्व तक संवर्तन रहेगा।"
ऐसे उल्लेखों के बावजूद दिगम्बर-परम्परा में अंग-साहित्य के सम्पूर्ण विच्छेद की बात बड़ी बढ़ता और स्पष्टता से कही जाती है । यह समीक्षणीय है ।
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जिस प्रकार श्वेताम्बर आगम-वाङमय अंग-प्रविष्ट एवं अंग-बाह्य के रूप में दो भेदों में विभक्त हैं, दिगम्बर-परम्परा में भी इन्हीं दो भेदों में उसका विभाजन है। दोनों परम्परात्रों द्वारा स्वीकृत नामों में भी काफी सादृश्य है ।
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पखण्डागम के धवला-टीकाकर प्राचार्य वीरसेन ने अपनी टीका में अंग-बाह्य तथा अंग-प्रविष्ट के सम्बन्ध में इस प्रकार उल्लेख किया है : "अर्थाधिकार दो प्रकार का है१. अंग-बाह्य, २. अंग-प्रविष्ट । उनमें अंग-बाह्य के चवदह अर्थाधिकार है : १. सामायिक, २. भंग चतुर्विशति-स्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृति-कर्म, ७. दशवकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्प-व्यवहार, १०. कल्प्याकल्प्य, ११. महाकल्प्य, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक, १४. निषिद्धिका ।"
१. श्रुत तपोभृतामेषां प्रणेश्यति परंपरा ।
शेषैरपि भुत-ज्ञानस्यैको देशस्तपोधनः ॥ ५२७ ॥ जिनसेनानुगर्वीरसेनः प्रातमहबिभिः । समाप्ते दुःषमायाःप्राक्, प्रायशो वर्तयिष्यते ॥ ५२८ ॥
–महापुराण (उत्तर पुराण, पर्व १) २. अस्थाहियारो बुषिहो, अंगबाहिरो अंग-पइट्ठो चेवि । तत्थ अंगबाहिरस्स चोइस अत्या
हियारा। तं जहा-१. सामाइयं, २. चउवीसत्थओ, ३. वंक्षणा, ४. पडिक्कमणं, ५. बेणइयं, ६. किरियम्म, ७. बसवेयालियं, ८. उत्तरायणं, ९. कप्पयवहारो, १०. कप्पाकप्पियं, ११. महाकप्पियं, १२. पुंडरीयं, १३. महापुंडरीयं, १४. णिसिहिय चेदि।
-पदमागम, प , भाग १, पुस्तक १, पृ० १६
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