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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४११ जो भी शुद्ध आहार चाहे दूध, दही से प्रार्द्र हो, चाहे सूखा-ठण्डा हो, चाहे बहुत दिन के पकाये उर्द हों, वे समभाव से लेते । गोदोहिका, उत्कटिक, वीर आदि आसनों में संस्थित हो निर्विकार-भाव से धर्म-ध्यान, शुक्ल-ध्यान ध्याते । उसमें ऊर्ध्व-लोक, अधोलोक तथा तिर्यक् लोक के स्वरूप का चिन्तन करते । आचारांग प्रथम श्रत-स्कन्ध के नवम अध्ययन के आधार पर किये गये इस विवेचन से स्पष्ट है कि आचारांग की रचना, विवेचन-पद्धति, वस्तु-प्रतिपादन आदि में अपनी असाधारण विशेषता है। भगवान् महावीर के उत्कृष्ट साधक-जीवन का यह जीता-जागता चित्र जहां उनके नितान्त साधना-निष्णात तथा तितिक्षोन्मुख जीवन का परिचायक है, वहां भारत के अन्तर्वर्ती कुछ एक प्रदेशों की तत्कालीन अवस्थिति की भी एक जीवित झांकी प्रस्तुत करता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध : रचना : फलेवर द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में श्रमण के लिए निर्देशित व्रतों व तत्सम्बद्ध भावनाओं का स्वरूप भिक्षु-चर्या, आहार-पान-शुद्धि, शय्या-संस्तरण-ग्रहण, विहार-चर्या, चातुर्मास्य-प्रवास, भाषा, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण, मल-मूत्र-विसर्जन आदि के सम्बन्ध में नियम-उपनियम आदि का विवेचन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि महाकल्पश्रुत नामक आचारांग के निशीथाध्ययन की रचना प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय प्राचार-वस्तु के बीसवें प्राभृत के प्राधार पर हुई है । आचारांग वास्तव में द्वादशांगात्मक वाङ्मय में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। "अंगाणं किं सारो ? आयारो" जैसे कथन इसके परिचायक हैं। व्याख्या-साहित्य आचारांग पर प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति, श्री जिनदास गणी द्वारा चूरिण, श्री शीलांकाचार्य द्वारा टीका तथा श्री जिनहंस द्वारा दीपिका की रचना की गयी। जैन वाङमय के प्रख्यात अध्येता डा. हर्मन जेकोबी ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा इसकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावना लिखी । प्रो० एफ० मैक्समूलर द्वारा सम्पादित “Sacred Books of the East' नामक ग्रन्थमाला के अन्तर्गत उसके २२ वें भाग में उसका आक्सफोर्ड से प्रकाशन हुआ। आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कन्ध का प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् १. आचारांग-नियुक्ति, २९१ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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