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________________ ४१० [ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ तब उन्हें रहने के लिए सर्वथा गये बीते स्थान -- उपद्रव युक्त खण्डहर आदि मिलते, श्रासन भी धूल आदि से भरे और विषम मिलते । लाढ देश के अनार्य जन भगवान् को मारते और दांतों से काटने दौड़ते। वहां बड़ी कठिनाई से रूखा-सूखा प्रहार मिलता, कुत्ते कष्ट देते, काटने को झपटते। वहां अनेक लोगों में से कोई एक उन काटने श्राते हुए कुत्तों को रोकता । शेष तो कुतूहलवश छूछू कर कुत्तों को काटने के लिए प्रेरित करते । वज्रभूमि में अन्यतीर्थी' भिक्षु यष्टिका और नालिका ( शरीर- प्रमाण से चार अंगुल बड़ी लकड़ी ) रखते थे, इस पर भी कुत्ते उन्हें काटते थे । लाढ देश में ग्राम इतने कम थे कि सायंकाल तक चलते-चलते गांव नहीं आता था, तो वृक्ष के नीचे ठहर कर भगवान् रात बिताते । कितनेक अनार्य लोग गांव से बाहर निकल, सामने जा भगवान् को मारने लगते और कहते- -यहां से निकल जानो । लाढ देश के अनार्य जन लकड़ी, मुक्के, भाले की नोंक, ईंट-पत्थर अथवा घट के खप्पर से उन्हें मारते थे । वे कभी-कभी भगवान् के शरीर का मांस भी काट लेते । कभी धूल बरसाते । कभी भगवान् को ऊँचा उठा कर पटकते । कभी भगवान् ध्यान के लिए गोदोहासन या वीरासन में बैठ होते, तो वे धक्का देकर लुढ़का देते । - तितिक्षा का विस्मायक रूप भगवान् निरोग होने पर भी अल्प भोजन करते । रोगी होने या न होने पर चिकित्सा नहीं कराते । संशोधन -- विरेचन, बमन, तेल-मर्दन, स्नान, संवाहन ( शरीर दबवाना ) तथा दन्त-प्रक्षालन - इन सबका वे त्याग किये हुए थे । में ध्यान करते तथा ग्रीष्म ऋतु में ताप के सामने शिशिर ऋतु में शीतल छाया श्रतापना लेते । रूखे-सूखे चावल, बेर का चूर्ण, उर्द और नीरस आहार से निर्वाह करते। इन तीन पदार्थों पर वे प्राठ मास तक रहे । अनेक बार पन्द्रह-पन्द्रह दिन और मास-मास तक आहार तो क्या जल तक नहीं लेते । कभी-कभी दो-दो मास, कभी-कभी छः-छः मास तक श्राहार- पानी का सर्वथा त्याग करते । पारणे में भी सदा नीरस पदार्थ लेते । कभी-कभी दो-दो दिन के अन्तर से कभी-कभी तीन-तीन, चार-चार और पांच-पांच दिन के अन्तर से प्रहार करते । जब कहीं भिक्षा के लिए जाते, पशु, पक्षी तथा अन्य भिक्षु आदि को देख धीरे से निकल जाते । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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