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________________ भाषा और साहित्य ] पालि भाषा और पिटक - वाङ्मय [ १८९ गया हो कि तथागत के निर्वाण के अनन्तर यह हमारा सहारा होगा, जिसका तुम अवलम्बन ले सकते हो ।" आनन्द ने कहा- - " ऐसा कोई भी श्रमण-ब्राह्मण नहीं है, जिसे संघ ने माना हो.... और जिसका अवलम्बन हम ले सकते हैं । "1 भगवान् बुद्ध के अनन्तर विधिवत् उत्ताधिकारी के रूप में किसी भी व्यक्ति का मनोनयन नहीं हुआ, जो भिक्षु संघ के संचालन का आधिकारिक रूप से कार्य कर सके । क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए; इस सम्बन्ध में भिक्षु संघ के लिए कोई आधार था तो केवल बुद्ध वचन ही । भगवान् बुद्ध के उपदेश मौखिक थे। उनके अन्तेवासी उन्हें सुनते थे, जन-समुदाय भी सुनता था । अन्तेवासियों का सम्भवतः यह प्रयत्न रहता था कि वे वचन उनकी स्मृति में रह सकें; इसलिए वे सम्भवतः इस और विशेष जागरूक भी रहते रहे होंगे । वस्तुतः भिक्षुओं का जीवन ध्यान और साधना का जीवन था। बुद्ध वचनों को वे स्मरण तो रखते थे, पर उनका इससे भी अधिक प्रयास उन्हें जीवन में उतारने की ओर था । भौतिक काया से जब भगवान् बुद्ध नहीं रहे, तो दायित्वशील भिक्षुओं को सहसा यह चिन्ता हुई कि तथागत के वचन स्थिर रहने चाहिए | उनके जीवन काल में तो वे आश्वत थे कि जब भी कोई शंका, विचिकित्सा होगी, भगवान् से समाधान पा लेंगे, किन्तु उनके अनन्तर अब तो उनके पास केवल भगवान् के वचन ही आधार थे, जिनसे वे समाधान पा सकते थे । वे जानते थे कि मनुष्य में अनेक दुर्बलताएं हैं । अवसर पाते ही वे उभय उठती हैं और मानव के सत्व को दबा लेती हैं, उसे पथ-भ्रष्ट कर डालती हैं। बड़ी साथधानी, तत्परता तथा विवेक के साथ मन का नियमन करना होता है । इन्हीं सब कारणों से भिक्षुओं को यह आवश्यक लगा कि बुद्ध के वचनों का संगायन ( संगान ) किया जाए । भिक्षुओं को यह भी चिन्ता थी कि भगवान् के वचनों की धरोहर को अब तक तो वे सहेजे हुए हैं, आगे कौन सहेजेगा ? मानवीय दुर्बलता की जो चर्चा की गयी है, वह कल्पना नहीं है, यथार्थ है । इस सम्बम्ध में दीव - निकाय का एक प्रसंग विशेषतः मननीय है । भगवान् बुद्ध के अनुपाधि-शेष निर्वाण धातु में प्रविष्ट हो जाने को सात दिन भी नहीं हुए थे, सुख पाये थे कि समुद्र नामक एक वृद्ध भिक्षु को यह भिक्षुओं के शोक कहते हुए सुना के आंसू भी नहीं गया - - 'आयुष्मान् The Middle Length Saying, Vol. III, P. 59-60 1. Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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