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________________ १६. ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ भिक्षुओ! बहुत हुआ। अव शोक मत करो। परिवेदना-चिलाप मत करो। हम उस महाश्रमण से सुमुक्त हो गये । हमें वह उपद्रुत–पीड़ित किया करता था—यह तुम्हारे लिए कल्पनीय-विधेय है, यह नहीं कल्पनीय-अविधेय है। अब हम लोगों की जो इच्छा होगी, हम करेंगे। जो इच्छा नहीं होगी, नहीं करेंगे।" । एक वृद्ध भिक्षु के ये वचन निःसन्देह आश्चर्य उत्पन्न करते हैं। वास्तविकता यह है कि जब कोई अभियान या आन्दोलन सभावृत हो जाता है, तो उसमें ऐसे लोग भी सम्मिलित होने लगते हैं, जिनमें उनके प्रति सच्ची निष्ठा या आस्था तो नहीं होती, पर, जो उससे अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं, सुविधायें भोगना चाहते हैं। यदि इस प्रकार के अवसरवादी लोग बढ़ जाते हैं, तो यह अभियान टूटने लगता है। उससे होने घाले जन-कल्याण का पथ अवरुद्ध होने लगता है। ऐसा लगता है, भगवान बुद्ध के धर्म संघ में ऐसे लोग भी प्रविष्ट हो चुके थे। वृद्ध भिक्षु सुभद्र तो खुल कर सामने आया, पर, न जाने और भी ऐसे कितने ही होंगे। ऐसी कुछ स्थितियां थीं, जिनसे विवेक और साधना के धनी भिक्षु चिन्तित हो उठे थे। चुल्लवग्ग में इस सन्दर्भ में आर्य महाकाश्यप की अन्तर्धेदना का बड़े मार्मिक शब्दों में उल्लेख हुआ है। आयं महाकाश्यप के मुह से कहलाया गया है-"आज हमारे समक्ष अधर्म दीप्त हो रहा है। धर्म प्रतिबाधित हो रहा है। अविनय दीपता जा रहा है और विनय प्रतिबाधित होता जा रहा है। आयुष्मन् भिक्षुओ। हम धर्म और विनय का संगान करें। संगान को आशय बद्ध के वचनों के संग्रह या संकलन में जो संगान या संगीति शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका सम्भवतः एक विशेष अभिप्रेत रहा है। यद्यपि भगवान् बुद्ध ने अन्तर प्रान्तीय १. अलं आवुसो। मा सोचित्थ। मा परिदेवित्य। सुमुत्ता मयं तेन महासमणेन । उपद्रुता च होम। इदं वो कप्पति, इदं वो न कप्पतीति । इदानि पन मयं यं इच्छिस्साम तं करिस्पाम। यं न इच्छिस्साम तं न करिस्साम । -महापरिनिव्वाण सुत्त, ( दीध०२ । ३ ), विनय-पिटक चुल्लवग्ग पंचसतिक खन्धक । २. पुरे अधम्मो दिप्पति, घम्मो पटिबाहियति अविनयो दिपति, विनयो पटिबाहियति हन्द मयं आवुसो ! धम्मं च विनयं च संगायाम । --विनय-पिटक, चुल्ल-बग्ग ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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