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________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [३७१ लिकाओं की संख्या पूवंगत के अन्तर्गत चतुर्दश पूर्षों में प्रथम चार पूर्वो के चूलिकाए हैं। प्रश्न उपस्थित होता है, दृष्टिबाद के भेदों में पूर्वगत एक भेद है । उसमें चतुदंश पूर्वो का समावेश है। उन पूर्वो में से चार-उत्पाद, अग्रायणीय, वीर्य-प्रवाद तथा अस्ति-नास्ति-प्रवाद पर चूलिकाए हैं । इस प्रकार इनका सम्बन्ध इन चार पूर्वो से होता है। तब इन्हें परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत और अनुयोग में उक्त, अनुक्त अर्थों-विषयों की जो संग्राहिका कहा गया है, वह कैसे संगत है ? विभाजन या व्यवस्थापन की दृष्टि से पूर्षों को दृष्टिवाद के भेदों के अन्तर्गत पूर्वगत में लिया गया है । वस्तुत: उनमें समन श्रुत को अवतारणा है; अतः परिकम, सूत्र तथा अनुयोग के विषय भी मौलिकतया उनमें अनुस्यूत हैं ही। चार पूर्वो के साथ जो चूलिकाओं का सम्बन्ध है, उसका अभिप्राय है कि इन चाय पूर्वो के सन्दर्भ में इन धूलिकाओं द्वारा दृष्टिवाद के सभी विषयों का, जो वहां विस्तृत या संक्षिप्त रूप में व्याख्यात हैं, कुछ कम व्याख्यात हैं, कुछ केवल संकेतित हैं, विशदरूपेण व्याख्यात नहीं हैं, संग्रह हैं। इसका आशय है कि पैसे धूलिकाओं में दृष्टिवाद के सभी विषय सामान्यतः संकेतित हैं, पर, विशेषतः जो विषय परिकर्म, पूत्र, पूवंगत तथा अमुयोग में विशदतया व्याख्यात नहीं हैं, उनका इनमें प्रस्तुतीकरण है। पहले पूर्व की चार, दूसरे की बारह, तीसरे की आठ तथा चौथे की दस चूलिकाएं मानी गई हैं। इस प्रकार कुल ४+१३++१=३४ धूलिकाएं हैं। वस्तु-वोड मय चूलिकामों के साथ-साथ 'वस्तु' संज्ञक एक और वाड मय है, जो पूर्षों का विश्लेषक या विषर्धक है । इसे पूर्वान्तर्गत अध्ययन-स्थानीय ग्रन्थों के रूप में माना गया है। । श्रोताओं की अपेक्षा से सूहम जीवादि भाव-निरूपण में भी वस्तु शब्द अभिहित है। ऐसा भी माना जाता है, सब दृष्टियों की उसमें अवतारणा है । वस्तुओं की संख्या प्रथम पूर्व में दश, दूसरे में चवदह, तीसरे में आठ, चौथे में अठारह, पांच में बारह, १. पूर्वान्तर्गतेषु अध्ययनस्थानीयेषु ग्रन्थविशेषेषु । -अभिधान राजेन्द्र, षष्ठ भाग, पृ० ८७६ २. श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवाविभावकथने । ३. सर्वदृष्टीनां तत्र समवतारस्तस्य जनके। -मभिधान राजेन्द्र, चतुर्थ भाग, पृ० २५१६ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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