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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [५२५ बहुत संक्षेप में यह वर्णन हुआ है, जब कि भावसंग्रह में अपेक्षाकृत विस्तार के साथ । दोनों में भद्रबाहु, उनके शिष्य आचार्य शान्ति और प्रशिष्य जिनचन्द्र का समान रूप से नामोल्लेख है। दर्शनसार में भद्रबाहु प्रख्यात निमित्त-वेत्ता के रूप में वणित नहीं हैं, सम्भवतः संक्षेप की दृष्टि से वैसा किया गया हो। वर्शनसार में सीधे जिनचन्द्र को शिथिल एवं दूषित पाचारवान् कहकर उससे श्वेताम्बरसंघ के प्रादुर्भाव की बात कही गई है। वहां कोई विशद वर्णन नहीं है। भावसंग्रह में दुष्काल की घटना, उसके फलित, साधुओं के शिथिलाचारी तथा सुविधावादी होने का उल्लेख करते हुए श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति का विवेचन किया गया है। दोनों वर्णनों में समय का निर्देश स्पष्ट है । उनके अनुसार वि० सं० १३६, तदनुसार वीर-निर्वाण सं० ६०६ में श्वेताम्बर-संघ का उद्भव हुआ । इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य भद्रबाहु ने वि० सं० १३६ से १२ वर्ष पूर्व अर्थात् वि० सं० १२४ तदनुसार वीरनिर्वाण सम्वत् ५९४ में सम्भवतः दुष्काल की घोषणा की होगी। श्वेताम्बरों द्वारा स्वीकृत दिगम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति तथा दिगम्बरों द्वारा स्वीकृत श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति के समय में केवल तीन वर्ष का अन्तर है । संघविभाजन की घटना को दिगम्बर तीन वर्ष पहले मानते हैं और श्वेताम्बर बाद में । খোন্ধীণ ঋথানগ্ধ हरिषेण-रचित वृहत्कथाकोष में १३१ वें कथानक के अन्तर्गत श्रुत-केवली प्राचार्य भद्रबाहु के वृत्तान्त के प्रसंग में श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के उद्भव की चर्चा प्राई है । पिछले पृष्ठों में यथाप्रसंग वृहत्कथाकोष के अनुसार प्राचार्य भद्रबाहु के जीवनबृत्त का उल्लेख किया गया है । प्राचार्य भद्रबाहु के उज्जयिनी जाने, भिक्षार्थ नगर में जाने पर शिशु द्वारा व्यक्त अपशकुन, आचार्य द्वारा भावी द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की घोषणा, विशाखाचार्य के नेतृत्व में श्रमण-संघ के दक्षिण के पुन्नाट देश में जाने, रामिल्ल, स्थूलवृद्ध एवं भद्राचार्य के अपने-अपने संघों सहित सिन्धु देश में जाने, प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा अवन्ती के भाद्रपद नामक उद्यान में समाधि-मरण प्राप्त करने, दुर्भिक्ष मिटने पर मुनि-संच के वापिस लौटने आदि की वहां विशद चर्चा की गई है; अतः यहां उन्हें पुनरावृत्त करना अपेक्षित नहीं है । केवल विवेच्य विषय पर संकेत-मात्र किया जा रहा है। १. रचना-काल शक संवत् १५३ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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