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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : ६
इस कथानक के अनुसार विशाखाचार्य के दक्षिण से वापिस लौटने पर संघ-विभाजन का रूप सामने आता है। जैसा कि वहां लिखा है :
"रामिल्ल, स्थूलवृद्ध तथा भद्राचार्य-ये तीनों जो अत्यन्त वैराग्यवान् थे, विशाखाचार्य के पास आये। उनके मन में भव-भ्रमण का त्रास परिव्याप्त था। उन्होंने तत्क्षण अर्द्ध-कर्पट का त्याग कर दिया तथा आत्म-बल संजोये निर्ग्रन्थ मुनियों का वेष स्वीकार कर लिया।
संसार-सागर के पार लगाने वाला गुरु-वचन जिन्हें नहीं रुचा, जिन्होंने मरमार्थ को नहीं समझा, उन्होंने जिन-कल्प तथा स्थविर-कल्प की द्विविध परिकल्पना की। वे अद्धफालक धारण किये रहे। उन कायर एवं प्रात्मबल-रहित व्यक्तियों ने इस तीर्थ-श्वेताम्बरमत की स्थापना की।"
तात्पर्य
वृहत्कथाकोषकार ने घटना को श्रुत-केवली भद्रबाहु से जोड़ने का प्रयत्न किया है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार श्रुत-केवली भद्रबाहु के स्वर्गवास का समय वीर-निर्वाण सम्वत् १६२ तथा श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण सम्वत् १७० माना जाता है । यदि श्रुत-केवली भद्रबाहु के समय की यह घटना मानी जाये तो संघ-विभाजन का काल बहुत पीछे चला जाता है। अर्थात् दर्शनसार तथा भावसंग्रह में निर्देशित समय (वीर निर्वाण ६०६) से लगभग साढे चार शताब्दियों का अन्तर पड़ता है। कुछ एक दिगम्बर परम्पराओं का और उल्लेख कर इस पर विचार करेंगे। .
. संघ-विभाजन : एक भिन्ने परम्परा ... पन्द्रहवीं शताब्दी में रयधू या रइधू नामक एक अपभ्रश कवि हुए। वे परम्परया दिगम्बर १. रामिल्लः स्थविरः स्चूल-भद्राचार्यस्त्रयोऽप्यमी।
महावैराग्यसंपन्ना विशाखाचार्य माययुः ॥ ६५ ॥ त्यक्त्वाद्ध कर्पटं सद्यः संसारात् त्रस्तमानसाः । नन्थ्यं हि तपः कृत्वा मुनि रूपं दधुस्त्रयः ॥ ६६ ॥ इष्टं न यगुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम् । जिनस्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि ॥ ६७ ॥ अर्द्ध फालकसंयुक्त मज्ञात परमार्थकैः । तरिवं कल्पितं तीर्थ कातरैः शक्तिवजितः ॥ ६८ ॥
-वृहत्कथाकोष
२. ई० सन् १४३९
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