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________________ भाषा और साहिल्य] आर्ष-(अदमागधी) प्राकृत और मागम पारमय [४५७ तीर्थकर की प्राशा का अतिक्रमण नहीं करती। इसी प्रकार साधु की मांख में कोई जीव-भुनगा, बीज, रज-कण प्रादि पड़ जाए, उसे वह स्वयं न निकाल सके और न वैसा कर सकने वाला कोई दूसरा साधु पास में हो, तो साध्वी शुद्ध भाव से वैसा करती हुई तीर्थकर की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण नहीं करती। साध्वी की भी वैसी ही स्थिति हो, जैसी साधु की पतलाई गयी है, तो साधु शुद्ध भाव से साध्वी के पैर से कील, कांटा, काच का टुकड़ा आदि निकाल सकता है । पाख में से कीटाणु, बीज, रज-कण भादि हटा सकता है। वैसा करता हुआ वह तीर्थकर की आज्ञा की विराधना नहीं करता। एक और प्रसंग है, जिसमें बतलाया गया है कि यदि कोई साध्वी किसी दुर्गम स्थान सै, विषम स्थान से, पर्वत से स्खलित हो रही हो, गिर रहा हो; उसे बचा सके, बंसी कोई दूसरी साध्वी उसके पास न हो तो साधु यहि उसे पकड़ कर, सहारा देकर बचाए, तो वह तीर्थकर की आशा का अतिक्रमण नहीं करता। इसी प्रकार यदि कोई साधु नदी में, जलाशय मैं, कीचड़ में फंसी साध्वी को पकड़ कर निकाल दे, तो वह तीर्थकर की प्राशा का उल्लंघन नहीं करता। इसी प्रकार नौका में चढ़ते-उतरते समय साध्वी के लड़खड़ा जाने, पड़ने लगने, वात आदि दोष से विक्षित हो जाने के कारण अपने को न सम्हाल पाने, हर्षातिरेक या शोकातिरेक से गुस्त-चित्त हो कर प्रात्म-धात आदि के लिए उद्यत होने, यक्ष, भूत, प्रेत आदि से आविष्ट हो जाने के कारण अस्त-व्यस्त दशा में हो जाने जैसे अनेक प्रसंग उपस्थित करते हुए सूत्रकार ने निर्दिष्ट किया है कि उक्त स्थिति में साधु साध्वी को पकड़ कर बघा सकता है। वैसा करने में उसे कोई दोष नहीं आता। स्पष्ट है कि सूत्रकार ने इन प्रसंगों से श्रमण-जीवन के विविध पहलुओं को सूक्ष्मता से परखते हुए एक व्यवस्था निर्देशित की है, जो श्रामण्य के शुद्धिपूर्वक निर्वहण-हेतु अपेक्षित एवं उपयुक्त सुविधाओं की पूरक है। रचना wa व्याख्या-साहित्य कल्प या वृहत्कल्प के रचनाकार आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि प्रत्याख्यान संज्ञक नवम पूर्व की आचार नामक तृतीय वस्तु के बीसवें प्राभृत के प्रायश्चित्त-सम्बन्धी विवेचन के प्राधार पर इसकी रचना की गयी । पूर्ष-शान की परम्परा उस समय अस्तोन्मुख थी; अतः प्रायश्चित्त-विधान, जिन्हें प्रत्येक श्रमण Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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