SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन कलेवर : विषय-वस्तु छः उद्देशकों में यह सूत्र विभक्त है। श्रमणों के खान-पान, रहन-सहन, विहार-चर्या आदि के गहन विवेचन की दृष्टि इस में परिलक्षित होनी है। प्रसंगोपात्ततया इसके प्रथम उद्देशक में साधु-साध्वियों के विहार-त्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि उन्हें पूर्व में अंग और मगध तक, दक्षिण में कोशाम्बी तक, पश्चिम में थानेश्वर-प्रदेश तक तथा उत्तर-पूर्व में कुणाल-प्रदेश तक विहार करना कल्प्य है। इतना प्रार्य-क्षेत्र है। इससे बाहर विहार कल्प्य नहीं है। इसके अनन्तर कहा गया है कि यदि साध प्रो को अपने ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र्य का विघात न प्रतीत होता हो, लोगों में ज्ञान, दर्शन व चारित्र्य की वृद्धि होने की सम्भावना हो, तो उक्त सीमानों से बाहर भी विहार करना कल्प्य है। तीसरे उद्देशक में साध प्रों और साध्वियों के एक-दूसरे के ठहरने के स्थान में प्रावागमन की मर्यादा, बैठने, सोने, पाहार करने, स्वाध्याय करने, ध्यान करने आदि नेषध प्रभृति का वर्णन है। श्रमण-प्रव्रज्या स्वीकार करने के समय उपकरण-ग्रहण का विधान, वर्षा-काल के चार तथा अवशिष्ट प्राठ मास में वस्त्र-व्यवहार प्रादि और भी अनेक ऐसे विषय इस उद्देशक में व्याख्यात हुए हैं, जो सतत जागरूक तथा संयम-रत जीवन के सम्यक निर्वाह की प्रेरणा देते हैं। चतुर्थ उद्देशक में प्राचार-विधि तथा प्रायश्चित्तों का विश्लेषण है। उस सन्दर्भ में अनुद्धातिक, पारंचिक तथा अनवस्थाप्य आदि की चर्चा है । রূন পত্রণুথ ওর __ प्रासंगिक रूप में चतुर्थ उद्देशक में उल्लेख हुआ है कि गंगा, यमुना, सरयू, कोसी और मही नामक जो बड़ी नदियां हैं. उनमें से किसी भी नदी को एक मास में एक बार से अधिक पार करना साधु -साध्वी के लिए कल्प्य नहीं है। साथ-ही-साथ वहां ऐसा भी कहा गया है : "जैसे, कुणाला में एरावती नदी है। वह कम जल वाली हैं। प्रतः एक पैर को पानी के भीतर और दूसरे को पानी के ऊपर करते हए पानी देख-देख कर (नितार-नितार कर ) उसे पार किया जा सकता है। उसे एक मास में दो बार, तीन बार पार करना भी कल्प्य है। पर, जहां जल की अधिकता के कारण वैसा करना शक्य महीं है, वहां एक बार से अधिक पार करना अकल्प्य है। ___ छठे उद्देशक में एक प्रसंग में कहा गया है कि किसी साधु के पांव में कीला, कांटा, काच का तीखा टुकडा गड़ जाए. साध उसे स्वयं निकालने में सक्षम न हो, निकालने वाला अन्य साधु भी पास में न हो, तो यदि साध्वी उसे शुद्ध भाव पूर्वक निकाले, तो वह ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy