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माषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी , प्राकृत और आगम वाङमय [ ४५५ सम्बन्ध में विशद विवेचन किया गया है, जो प्रत्येक संयम एवं तप-रत भिक्षु के लिए परिशीलनीय है।
अष्टम अध्ययन में भगवान् महावीर के च्यवन, गर्भ-संहरण. जन्म, दीक्षा, केवल-ज्ञान, मोक्ष प्रादि का वर्णन है। इसे पज्जोसरण-कप्प या कल्प-सूत्र के नाम से भी अभिहित किया जाता है। उस पर अनेक प्राचार्यों की टीकाए है, जिनमें जिनप्रिय, धर्मसागर, विनयविजय, समयसुन्दर. रत्नसागर, संघविजय, लक्ष्मीवल्लभ आदि मुख्य हैं। पर्युषण के दिनों में साधु प्रवचन में इसको पढ़ते हैं। छेद-सूत्रों का परिषद् में पठन न किये जाने की परम्परा रही हैं। क्योंकि उनमें अधिकांशतः साधु-साध्वियों द्वारा जान-अनजान में हुई भूलों, दोषों आदि के सम्मार्जन के विधि-क्रम हैं, जिन्हें विशेषतः उन्हें हो समझना चाहिए, जिनका उनसे सम्बन्ध हो। पर्युषण-कल्प छेद-सूत्र का अंग होते हुए भी एक अपनी भिन्न स्थिति लिये हुए है; अतः उसका पठन अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के इतिहास का अवबोध कराने के हेतु उपयोगी है। किम्वदन्ती है कि विक्रमाब्द ५२३ में प्रानन्दपुर के राजा ध्र वसेन के पुत्र का मरण हो गया। उसे तथा उसके पारिवारिक जनों को शान्ति देने की दृष्टि से तब से इसका व्याख्यान में पठन-क्रम प्रारम्भ हमा।
रचनाकार : व्याख्था-साहित्य
दशाश्रु तरकन्ध के रचयिता आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। उन्हीं के नाम से इस पर नियुक्ति है। पर, जैसा कि व्यवहार-सूत्र के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख हुआ है, सूत्र मौर नियुक्ति की एककर्तृव ता सन्दिग्ध है। इस पर रिण की भी रचना हुई। ब्रह्मर्षि पार्श्वचन्द्रीय-प्रणीत वृत्ति भी है।
५. कप्प (कल्प अथवा वृहत्कल्प) दशाश्रु तस्कन्ध के अष्टम अध्ययन के सन्दर्भ में पर्युषण-कल्प की चर्चा की गयी है, उससे यह भिन्न है। इसे कल्पाध्ययन भी कहा जाता है। कल्प या कल्प्य का प्रथं योग्य व विहित है। साधु-साध्वियों के संयम-जीवन के निमित्त जो साधक प्राचरण हैं, वे कल्प या कल्प्य हैं और उसमें बाधा या विघ्न उपस्थित करने वाले जो प्राचरण हैं, वे प्रकल्प या प्रकल्प्य हैं। प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वियों के संयत चर्या के सन्दर्भ में वस्त्र, पात्र, स्थान आदि के विषय में विशद विवेचन है। इसे जैन श्रमण-जीवन से प्राचीनतम प्राचार-शास्त्र का महान् ग्रन्थ माना जाता है। निशीथ और व्यवहार की तरह उसका भी भाषा, विषय आदि की दृष्टि से बड़ा महत्व है। इसकी भाषा विशेष प्राचीनता लिये हुए है। पर, टीकाकारों द्वारा यत्र-तत्र परिवर्तन, परिवर्धन आदि किया जाता रहा है, जैसा कि अन्यान्य आगमों में भी हुआ है।
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