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भाषा और साहित्य ]
प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं
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भिन्न-भिन्न क्षेत्रों, व्यवसायों, जातियों व वर्गों के लोगों द्वारा थोड़ी-बहुत भिन्नता के साथ
ब्राह्मण जाति के लोगों के बोलने का कुछ अलग विशेषता रहती है, जबकि व्यापारी समाज लिये रहता है । वही भाषा हरिजन जातियों उनकी अपनी विशेषता तथा औरों से
बोली जाती है। एक ही नगर या गांव में लहाजा, थोड़ी-सी भिन्न शब्दावली आदि की का बोलने का प्रकार कुछ अपनी विशेषताए में परस्पर बोली जाती है, तब उसमें भिन्नता रहती है ।
उपयुक्त विवेचन का अभिप्राय यह है कि नाटकों में लोक-भाषाओं के प्रयोग की जो इतनी विविधता निर्दिष्ट की गयी है, उससे यह सिद्ध होता है कि शिष्टजनों और सामान्य लोगों की भाषा में एक अन्तर था । शिष्टजन संस्कृत का प्रयोग करने में गौरव भी अनुभव करते रहे होंगे, क्योंकि संस्कृत को बहुत समय तक राज्याश्रय भी प्राप्त रहा । वैदिक आम्नाय में आस्था रखने वाले राजाओं ने इसे वेदों और धर्म शास्त्रों की भाषा होने से पवित्र माना । फलतः उसे राज-भाषा का स्थान मिला । ताम्र पत्रों, दान-पत्रों, प्रशस्ति-पत्रों आदि में इसी का प्रयोग चलता रहा। जहां भारतीय राजाओं ने अन्य देशों में अपने उपनिवेश तथा सम्बन्ध प्रतिष्ठापित किये, वहां के लिए भी सम्पर्क भाषा संस्कृत ही रही । वहां की भाषाओं पर भी संस्कृत का कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा। यही कारण है, तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, अफगानिस्तान तथा पूर्वी द्वीप समूह आदि देशों की भाषा में संस्कृत के शब्द प्राप्त होते हैं ।
शिष्टजन प्रयोज्य भाषा होने के कारण संस्कृत में साहित्य सर्जन की एक अविच्छिन्न परम्परा चलती रही। इसी का परिणाम है कि संस्कृत की अद्भुत प्रतिभाओं से इस कोटि का साहित्य प्रसूत हुआ, जो विश्व के समृद्धतम साहित्यों में गिना जाता है। संस्कृत ने कालिदास, माघ, भारवि और श्रीहर्ष जैसे कवि उत्पन्न किये, जिनकी विशेषताएं अपने आप में अप्रतिम हैं ।
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