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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
अनुरूप हों, वे शब्द आख्यातज या धातु-निष्पन्न हैं । पर, जहां ऐसी संगति नहीं होती, वे शब्द संज्ञा-वाची हैं, रूढ़ हैं, यौगिक नहीं, जैसे - गो, अश्व, पुरुष, हस्ती ।
"सभी शब्द यदि धातु- निष्पन्न हों, तो जो वस्तु ( प्राणी ) जो कम करे, वैसा ( कम ) करने वाली सभी वस्तुए उसी नाम से अभिहित होनी चाहिए । जो कोई भी अध्व ( मार्ग ) का अशन- व्यापन करें, शीघ्रता से दौड़ते हुए मार्ग को पार करें, वे सब 'अश्व' कहे जाने चाहिए । जो कोई भी तर्दन करें, चुमें, वे तृण कहे जाने चाहिए | पर, ऐसा नहीं होता । एक बाधा यह आती है, जो वस्तु जितनी क्रियाओं में सम्प्रयुक्त होती है, उन सभी क्रियाओं के अनुसार उस ( एक ही ) वस्तु के उतने ही नाम होने चाहिए, जैसे—स्थूणा ( मकान का खम्भा ) दरशया (छेद में सोने वाला - खम्भे को छेद में लगाया जाता है) भी कहा जाये, किन्तु ऐसा नहीं होता ।
"एक और कठिनाई है, यदि सभी शब्द धातु-निष्पन्न होते, तो जो शब्द जिस रूप में व्याकरण के नियमानुसार तदर्थं बोधक धातु से निष्पन्न होते, उसी रूप में उन्हें पुकारा जाता, जिससे अर्थ - प्रतोति में सुविधा रहती । इसके अनुसार पुरुष पुरिशय कहा जाता, अश्व अष्टा कहा जाता और तृण तर्दन कहा जाता । ऐसा भी नहीं कहा जाता है ।
होता, तो प्रयोग या पृथिवी शब्द का उदा
इस व्युत्पत्ति पर
उसका आधार
“अर्थ - विशेष में किसी शब्द के सिद्ध या व्यवहृत हो जाने के अनन्तर उसकी व्युत्पत्ति का विचार चलता हैं, अमुक शब्द किसी धातु से बना । ऐसा नहीं व्यवहार से पूर्व भो उसका निर्वचन कर लिया जाना चाहिए था । हरण ले प्रथनात् अर्थात् फैलाये जाने से पृथिवी नामकरण हुआ । कई प्रकार की शंकाएं उठती हैं । इस (पृथिवी) को किसने फैलाया ? क्या रहा अर्थात् कहां टिक कर फैलाया । पृथ्वी ही सबका आधार है । फैलाये, उसे अपने लिए कोई आधार चाहिए । तभी उससे यह हो सकता है । इससे स्पष्ट है कि शब्दों का व्यवहार देखने पर मानव व्युत्पत्ति साधने का यत्न करता है और सभी व्युत्पत्तियां निष्पादक धातु के अर्थ की शब्द के व्यवहृत या प्रचलित अर्थ में संगति सिद्ध नहीं करतीं ।
जिसे जो पुरुष
" शाकटायन किसी शब्द के अर्थ के अन्वित - अनुगत न होने पर तथा उस ( शब्द ) की संघटना से संगत धातु से सम्बद्ध न होने पर उस शब्द की व्युत्पत्ति किसी-न-किसी प्रकार से साधने के प्रयत्न में अनेक पदों से उस ( शब्द ) के अंशों का संचयन कर उसे बनाते हैं । जैसे – 'सत्य' शब्द का निर्माण करने में 'इण' ( गत्यर्थंक ) धातु के प्रेरणार्थक (णिजन्त) रूप आयक के यकार को अन्त में रखा, असू ( होना ) धातु के णिजन्त-रहित मूल
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